कविता -श्याम सिंह बिष्ट -Hindi Poetry-कविता-Hindi Poem | Kavita Shyam Singh Bisht Part 4

कविता -श्याम सिंह बिष्ट -Hindi Poetry-कविता-Hindi Poem | Kavita Shyam Singh Bisht Part 4

खुशियों का घर

खुशियों का घर इस शहर मैं –
मैं बनाऊँ कैसे
खुद को महसूस करता हूं
एक अपराधी जैसा
नेकी का जब मैने कमाया ही नहीं
नेकी कर मैंने जब
दरिया मैं डाला ही नही
छोड़ आया जब मैं
अपनों परिजनों को रोते बिलखते हूऐ
उनकी महत्वकांछाओ को
जब मैने पूरा किया ही नही
जो शहर कभी सोता ही नहीं
इन आँखों मैं फिर
सपना किसका सजाऊ
हर कोई तो यहाँ
लालच भारी आँखों से देख रहा
गुरूर यहाँ सबको खुद पे
लड़ रहे भीड़ रहे
हर गली मोहल्ले के चोराहे पर
यहाँ इंसान खुद ही,
कभी जब देखा ही नहीं
कटे फटे, मैलो वस्त्र पहने इंसानो की ओर
खुद ही तो श्रंगार किया अपना ही
मजहबों के दीवारों मैं
जब खुद ही, है बटा हूआ
ग्लानि, शर्मिन्दगी नहीं होती आँखों मैं
आँचल किसी का छीनते हूऐ
फिर खुशियों का घर
इस शहर मैं,
मैं बनाऊँ कैसे ?

माँ

मां तेरे आगे निशब्द में
कैसे करूं तेरा बखान
तुझे कहूं,
बहता पावन, गंगाजल
या फिर वेद, कुरान

तुम ही गुरु,
मेरे पहले ज्ञान की
तुझसे ही तो माँ
मेरी यह पहचान,

तुम ही तो हो जननी
इस प्रकृति, ब्रह्माण्ड की
तेरे समक्ष नतमस्तक
ब्रह्मा, विष्णु, महेश
व संपूर्ण यह जहान

मां रूप तेरे अनगिनत
तुम ही परिभाषा
प्रेम, त्याग की
तुम से ही
उपजित शब्द यह बलिदान,

मां तेरे आगे निशब्द में
कैसे करूं मैं,
नादान तेरा बखान
मां तुम महान,
तुम महान, तुम महान ।।

हाथ मे शिक्षा, मस्तिष्क मैं अंधविश्वास

आँखों को अपनी कब खोलोगे
हो तुम मुर्दा
तन से मन से
अपने मस्तिष्क से,
जिंदा होने का है वहम
तुम्हें सिर्फ
अपने इस तन का,

वहम तुमने फिर भी
अपने मस्तिष्क में पाले
लेकर हाथ मैं यह शिक्षा, डिग्रीया
जकड़े हो तुम
इन अंधविश्वासो के फेरो मैं
कब तक मानोगे
इस छुवा, छुत, को

लेकर ज्ञान का दिया
जलाते हो क्यों नहीं
रोशनी अपने अंतर्मन मैं
करके तुम पाप
कहते हो
गंगा मैं नहा के आया
जितने थे पाप बहा के आया

यह तुम्हारी रूढ़िवादी सोच
अब तुम किस, किस पर थोपोगे

है रक्तस्राव निकलना मासिकधर्म
फिर उसी नारी को
अलग थलग तुम कर आते हो
दिन बीते जैसे ही चार, पाँच
फिर उसी नारी के हाथों का
तुम क़्यों खाते हो

तन नहीं होता मल
सोच मल होती है
है भरतवंशीयो
तुम्हारी इन हालतों पर
आज इस “बिष्ट “की कलम रोती है

विज्ञान मानोगे
ज्ञान मिलेगा ।
अँधे बने रहोगे
अज्ञान मिलेगा ।।

शरद ऋतु

देखों ऋतु शरद मैं
वो फिर काँपने लगे है
बैठे, रहते, थे बना कर घर
जो किसी पुलिया
खुले आसमान के नीचे
यह शरद ऋतु
कब उनके लिए खुशगवार बना
जली हुई थी
जो आग, गर्माहट,
बुझी वह भी
उन ओस वाली बूंदो से
चिपका कब तक
रहता वह बच्चा
अपनी माँ की गोद से
पेट की आग
जब तक ना बुझी हो
कब तक मोड़े रहते
वो पेट से उन घुटनों को
जब शरद ऋतु
हो अपने चरम पर
होता ग्रीष्म ऋतु
उत्तार फैकतें
उन फटे वस्त्रों को
पर ऋतु शरद ने
कब इन पर दया दिखाई
देखों ऋतु शरद मैं
फिर वो काँपने लगे हैं

प्रकति

ऐ प्रकति
क्यों हो तुम रूठी हूई
पहले तो बहती थी
निश्छल वेग मैं
अब यह सैलाब
कहाँ से लाई हो
कहाँ गई तुम्हारी
वो निर्मल पत्तों की हवा
अब रुदन क्यों
तुम्हारा यह पत्तों का शोर

ऐ प्रकति
क्यों हो तुम रूठी हूई
उतारे तुमनें क्यों
ये अपने
सफेद हिम के चादरे
कहाँ गए
वो तेरे हरे मखमली आँगन
अब दीखती हो
जैसे कोई हो
विधवा अभागन
कहाँ गए वो तेरे
रंग, बिरंगे, फूल
वो पंछी, वो चहचहाहट
अब दीखता क्यों नहीं
वह आसमानी इंद्रधनुष
ऐ प्रकति
क्यों हो तुम रूठी हूई

क्या में तुम्हें याद आऊँगा

क्या में तुम्हें याद आऊँगा
वो आँगन की तेरी, मेरी
उस दहलीज पर
संग बिताए हुए
समय के हर उस क्षण में,

कितनी खामोश थी वो रातें
जुगनुओं का था तब पहरा
उन बातों में,उन रातों में, उन पहरों में
क्या में तुम्हें याद आऊँगा,
उस हँसी की ठिठोली में
उस हर एक
त्योहारों की रंगोली में
संग देखे, बुने हूऐ उन सपनों की
व अतीत की झोली में
क्या में तुम्हें याद आऊँगा,

भीगी हूई बारिशों की उन बूदों में
तेरी मेरी, हर उन मुलाकातों में
ऐ प्रियतम -क्या में तुम्हें याद आऊंगा,

बीते हुए दिनों के
हर उस पहर में
डूबे, उगे, हुए
सूरज की हर उस लालिमा में
क्या में तुम्हें याद आऊंगा
तुम्हारे आज में
तुम्हारे आने वाले कल में ।

गीत कौन सा गाऊँ मैं

गीत कौन सा गाऊँ मैं
गीत कौन सा गुनगुनाऊँ मैं
इस पतझड के मौसम मैं
सावन की बेला कहाँ से लाऊँ मैं
गीत कौन सा गाऊँ मैं
गीत कोन सा गुनगुनाऊँ मैं ।

रूठा मुझसे यह बसन्त
रूठा आज मेरा मनमीत है
टूटे, छुटे, इस जग के
यह बँधन सारे,
किस गली, किस शहर
किस घर, अब जाऊँ मैं
गीत कौन सा गाऊँ मैं
गीत कोन सा गुनगुनाऊँ मैं ।

अक्स बिन, उनका देखे
नींद आती नही,
तन्हाई जाती नही,
इन आँखों मैं अब
स्वपन किसका सजाऊ मैं
गीत कौन सा गाऊँ मैं
गीत कोन सा गुनगुनाऊँ मैं ।

भ्रम थे जो प्यार के, मैने पाले
वो टूट चुके, बिखर चुके
इस ह्रदय मैं अब,
यादें किसकी सजाऊँ मैं
गीत कौन सा गाऊँ मैं
गीत कोन सा गुनगुनाऊँ मैं ।

ऐ- इश्क आज तू भी हो गया बड़ा निर्लज्ज
हम कहते नहीं, वो सुनते नहीं,
पैगाम-ए-मोहब्बत, अब किसको बतलाऊं में
गीत कौन सा गाऊँ मैं
गीत कोन सा गुनगुनाऊँ मैं ।।

वो घुमावदार पीपल

वो पगडण्डीयां, वो रास्ते
अब भी जाते हैं तेरी उन गलियों को
जहाँ अभी भी खड़ा है
वह पुराना पीपल का
विशालकाय घुमावदार वृक्ष,

अब भी दिखाई दे जाती हैं
वहां पानी भरती हुई कोई पंनवारन
फर्क अब इतना है,
पीपल का वृक्ष, रास्तें वहीं है
सिर्फ तेरी याद घुल सी गयी हैं
उन सदियों से चली आ रही
उन फिज़ाओं, हवाओं मैं,

देखता हूं जब कभी
में तेरे उस घर को
घेर लेती है तेरी यादें मुझे
कर देती है मेरी चेतना मुझे शून्य
हो जाता हूं मैं मूक
टूट जाते हैं मेरे मस्तिष्क के भ्रम,

और याद रह जाता है सिर्फ
तेरे मेरे मिलने की जगह
वह घुमावदार पीपल का वृक्ष ।

ख्वाबों का तकिया

तकिए के नीचे
कुछ ख्वाब पलते हैं
और मिलते हैं
रोज सपनों में
कभी कराते हैं
एहसास मखमली सा
कभी रुदन शोर
सुनते हैं
मेरे ह्दय का
पसर जाती है जब
तनहाइयां चारों ओर
घिरा हुआ होता है अंधेरा
तब छोड़ देती है रूह मेरी
मेरे इस शरीर का
हुआ पड़ा होता हूं
मैं निर्जीव
ना जाने किस
अवस्था में
फिर भी ये ख्वाब
याद दिलाते है मुझे
अपना अतीत, वर्तमान
और
सजीव होने का
मुझे एहसास
कुछ ख्वाब बुने हुए
मेरे बुनाई जैसे
कुछ दबे हुए ही
रह जाते हैं
अब भी इस
तकिए के नीचे

चाय की दुकान

पी आता हूँ
कुछ गम
कुछ खुशिया
कह, सुन आता हूँ
कुछ अपनी
कुछ उनकी,
उड़ रही जिंदगी
चाय के
भाप की तरह
हमें है भ्रम
हम जी रहे हैं,
सुलगते, दहकते जज़्बात
कचोट रहें है मन को
तल पे सत्य छुपा है
ऊपर कप की
प्याली मैं जैसे
झूठ हिलोरें मार रहा है,
फूंक, फूंक कर
पढ़ रहा है चलना
डर हैं कहीं
जीवन यह अपना कर्तव्य
भूल ना जाए,
रोज के नए किस्से है
कुछ तेरे
कुछ मेरे
हिस्से हैं ।।

तुम्हारी याद आती है

ए प्रियतम
तुम्हारी याद आती है
जब जब हुई बरसात
जब जब निकला
मेरी आंखों से सैलाब
ए प्रियतम तब तब
तुम्हारी याद आती है ।
रहता हूं मैं
जब जब भी तनहा
चाहता हूं मैं
जब कुछ कहना
भटकता हूं दिनभर
रातों को ना नींद आती है
ए प्रियतम
तुम्हारी याद आती है ।।

पपीहे की धुन
कोयल का गान
तेरी मेरी वो पहली मुलाकात
मुझे याद आती हैं
ए प्रियतम
तुम्हारी याद आती है ।
वो किस्से वो कहानियां
वो गली, वो तेरा घर
हर बात मुझे
अब रुलाती है
ए प्रियतम
तुम्हारी याद आती है ।।

हम भी तन्हा
तुम भी तन्हा
तन्हा यह तुम बिन मेरा जीवन
अब अकले अकले ही
कट सी जाती है
ए प्रियतम
क्यों हो तुम रूठे
तुम्हारी याद आती है ।

Comments are closed.