कविता -श्याम सिंह बिष्ट -Hindi Poetry-कविता-Hindi Poem | Kavita Shyam Singh Bisht Part 2

कविता -श्याम सिंह बिष्ट -Hindi Poetry-कविता-Hindi Poem | Kavita Shyam Singh Bisht Part 2

सावन आया है

आओ खुशी से नाचे गाये
क्योंकि फिर सावन आया है
धो लो अपने सब मन के वहम
क्योंकि फिर सावन आया है
लेकर प्रीत संग बादल की
फिर यह बरसने आया है
नाचो गाओ –
क्योंकि फिर सावन आया है
चल रही, ठंडी पुरवैया
झूम रहे खेत खलियान उमंग होकर
क्योंकि फिर सावन आया है
बूदें हैं ये पानी की
या इनसे कोई मोती गिर रहे
खुश है आज बच्चा – बच्चा
देकर आज फिर ये नई सौगात
क्योंकि फिर सावन आया है
क्या शहर क्या गाँव
गरज रहे, बरस रहे
बनकर मेघदूत ये बादल
झूमो नाचो गाओं
क्योंकि फिर सावन आया है
छेडी इन पंछियो ने
यह कैसी तान
देखो कोई प्रियतम, कोई मल्हार
फिर कुछ कहने आया है
नाचो गाओ –
क्योंकि फिर सावन आया है

मौत

ऐ मौत मुझे है पता
एक दिन आएगी तू
किन्ही को खुश,
किन्ही को बहुत रुलाएगी तू

तोड़ के इन,
जमाने भर की जंजीरों को
मेरे घर का पता भी ढूढ लाएगी तू
ऐ मौत मुझे है पता
एक दिन आएगी तू

हूँ जब तक जिंदा
लड़ुगा, गिरूंगा
तेरे इन तूफानों से
वीर सपूत हूं मैं भी सच्चा
मेरे इस भारत का
फिर उठ खड़ा होऊंगा
इन लहुलाहते कदमों से
देखूँ मैं भी,
कब, कब मेरा
रास्ता रोक पाएगी तू

सिला रखा है
मैंने भी कफ़न
तेरी, मेरी उस मुलाकात का
रखता हूं मैं भी हिसाब
अपनी हर,
हार, जीत का

ऐ मौत
जब तू ले मुझे
अपनी आगोश मैं
कोई मलाल ना रहे तुझे
मेरी किसी भी बात का
ऐ मौत मुझे है पता
एक दिन आएगी तू

धड़कूँगा हर बार
फिर मैं
इस धरा के लिए
ऐ मौत मुझसे
कहाँ जीत पाएगी तू ।।

वीरान मेरा यह गाँव

ओह ! मेरा यह गाँव
कितना वीरान हो चुका है
घर, आंगन
तब्दील हो चुके हैं
खंडरो, मकड़ियों के जालों में
खेतों, की लहलहाती हूई
वो फसल, यादों का एक किस्सा
बन गई हैं
घरों की, आंगन की
वो किलकारीया
गूँज रही हें
अब शहरों में
वो हरे, भरे, चीड़, देवदार के वन
अब झुलश रहें हैं
आग की तपिश में
रंग, विरंगे फूल,
चिड़ियों, भंवरों का शोर
अब एक रुदन सा
अहसास कराता है
सुर्य, का उदय, अस्त होना जारी है
परन्तु घरों के वो किवाडें
अभी भी बंद हैं
और राह देख रही हैं
अपनों के आने का
वह घरों के कुल देवी, देवताओं
का मंदिर वीरान है
ओर बरसों से बुझा हूआ है
वो माटी का दिया
जो रोशनी से उज्जवल होता था
घरों में कभी
वह घंटियों की आवाज
मानो चीख पुकार कर रही है
और कह रही है –
तुम कब आओगे ?
दीख जाते हैं यहां,
कभी, कभी वो बूढ़े हूए कंधे
आस लगाए, टकटकी आंखों से
अपने घरों के खिड़कियों में
उन रास्तों, खेतों, जंगलों का
यह अब सूनापन
उकेर रहा है, हृदय में
उन भूली बिसरी यादों को
जब संग, साथी, दोस्त
जाते थे एक दूजे के
कंधों में हाथ, रख कर
जब कभी दूर सड़क पर चलती हुई
बस से उतरता है कोई मुसाफिर
घरों की वह विरान आंगने
कह उठती हैं
शायद मेरा कोई अपना
मुझे चाहने वाला आया है ।।

माँ का लाल

माँ पूछे बेटा हाल कैसा है
परदेश जाकर मेरा लाल कैसा है ?

क्या बताऊँ माँ —
सुखी यह रोटी चबाई नही जाती
गर्म वो फूली रोटी
तेरे हाथ की बनी
भुलाई नहीं जाती

रोज नित्य के वही
ऑफिस, कारखाने हैं
बंद पिंजरे मैं कैद यहां जिंदगी
उड़े हो गए अब मुझे
वो बीते जमाने हैं

भटकता रहता हूँ यहां दिनभर
रिश्तो पर पैसों का मायाजाल है
मत पूछ मेरी माँ
किराए की जिंदगी मैं
जी रहा तेरा यहां लाल है

पहचान तुझे अपनी मैं
अब माँ यहां क्या बताऊं
परदेशी या फिर एक किराएदार हूँ
जब से छुटा तेरा साथ
तब से यहां सभी से अंजान हूँ

बोली भाषा मेरी
यहां कोई जानता नही
शहरी ही शहरी को
यहां पहचानता नहीं

बिछड़कर, छूटकर माँ गांव से
यहां आजीवन वनवास हो गया
तंग कमरों मैं यहां जीना बेहाल हो गया

माँ तुमको क्या मैं रोज याद आता हूँ
बिन तेरी गोदी
अब मैं यूं ही सो जाता हूँ

मत पूछ माँ क्या हाल हो गया
तेरा लाल यहां बेहाल हो गया ।।

ताज या कोई राज

ताज प्रतीक प्रेम का
या लहूलुहान काटे गए हाथों से
बना एक मकबरा
संगमरमर का,
यह निशानी कैसी प्रेम की
जिसने छीनी जिंदगीया
उजाड़े घर
काश्तकारों के,
वह शासक प्रजा का
या क्रूर शनकी प्रेम मैं डूबा
अंधभक्त एक राजा,
महल वह सुंदरता का
या चीखों, बदुआओ से
बना सफेद सिर्फ पत्थर
वह ताज या कोई राज ?

रीत

यह किसने रीत बनाई
पिया का घर बने अपना
बाबुल के घर से हूई बिदाई
छोड़कर रिश्ते, उम्र तिहाई,
यादें को लिए दामन मैं
फिर प्रियतम सँग
नई दुनिया,
नए रिश्तों की नाव चलाई
यह किसने रीत बनाई ।।
देकर नाम सोलह श्रृंगार
किए अंकित चिन्ह
जमाने ने मुझ में
कहीं पर सिंदूर
कहीं पर चूड़ियां
माथे पर पिया नाम की बिंदिया लगाई
यह किसने रीत बनाई ।।
छोड़ कर बाबुल की
दी हुई पहचान मेरी
पिया के नाम की
ही मोहर लगाई
यह किसने रीत बनाई ।।

एक नदी गगास

ए नदी गगास –
कहाँ तुम हूऐ जा रही हो लुप्त
कहाँ गए वो तुझ पर नाज करने वाले
कहाँ गए वो तेरे ठेकेदार
कहाँ गए वो तेरे जन, जन
जो देते थे दुहाई,
अपनी आजिविका की
जिन्होंने नोचा तुझे हर पल
करके कंक्रीट, तेरा पथ, पानी
खड़े किए अपने राजमहल
घोंप कर हर पल
खंजर तेरे सीने मैं,

ए नदी गगास –
तूझे उजाड़ने वाले, उजाड़ते रहे
हम बने रहे तब भी
अब भी मूक बधिर दर्शक
कहते रहे हम
अपनो को देव भूमि
पर निभाया क्या हमने
माँ कहलाने वाली नदियों
की यह हालात देख कर,

ए नदी गगास-
कभी तुम बहती थी
कल कल वेग से
सींचती थी हमारे हरे, भरे
लहलाते खेतों को
भरती थी अन्न के भंडारों को
तेरे ही अँचल मैं तो
खेल कुदकर हूऐ थे बड़े,

ए नदी गगास-
तू ही तो है प्राणदायिनी
इस मेरे गाँव, की
फिर हम क्यों नहीं
बन सकते वही भागीरथ
जिसने तारा जग सारा ।।

तू याद आता है

तू याद आता है
माँ की खाली
हूई गोद मैं
पापा के अब
इन झूखे हूऐ कंधो मैं
तू याद आता है
बहन की एक अधुरी
रखी हुई राखी मैं ।

तू याद आता है
मेरे संग खेले हूए
हर एक खेल मैं
घर मैं रखे हुए
इन चाबी वाले खिलौनों मैं
तू याद आता है
इन लटके हुए मेडलों मैं
हमारे उन झगड़ो मैं ।।

तू याद आता है
उसके साथ निभाए
तेरे उन वादों, कसमों मैं
बेरंग पहने हुए उसके
उन सफेद वस्त्रों मैं ।

तू याद आता है
घर मैं जन्मी तेरी
उस नन्हीं बिटिया की हँसी मैं
तू याद आता है
सुबह की उस तेरी ठिठोली में
शाम के उसके इंतजारओं में ।।

तू याद आता है
इस होली मैं
दहलीज पर सजी
उस दीवाली की रंगोली मैं
तू याद आता है
कोरे कागज से हुए
उन कलाई,
हाथों की हथेलियों में ।

तू याद आता हैं
माँ के ना सूखे
हूऐ उन आंखों मैं
मेरे ना बयां
होने वाले जज्बातों में
तू याद आएगा
हमारे आने वाले कल मैं
हमारे बीते हुए पल मैं ।।

कर्म ही पूजा है

मेरा प्रभु
मेरे पर कर्म क्यों करे ?
मेने किया ही क्या
दो वक्त की पूजा पाठ
पर दिया ही नही कुछ
चोखट पर खड़े मेरे
उस गरीब को जो करराह रहा था भूख से,
माना गया मैं मंदिर, गुरुद्वारा
चढ़ाऐ फूल, प्रसाद
पर ध्यान दिया नहीं
उस फ़क़ीर पर
जो बैठा था
मेरे आने की आश मैं,
किया हवन, किया दान
पर कि नहीं कभी मरम्मत
टाट, टूटे,फूटे, टीन, लकड़ी
के बने उन घरों की
जो रहते हैं
वहाँ की बदहाली मैं,
चढ़ते हैं चादरें, बदलतें हैं कपड़े
रोज नित्य
अपने, अपने भगवान के
पर मेरा, तेरा प्रभु
हम पर कर्म क्यों करे
जब हम
मुख फेर लेते हैं
किसी मेले, कुचले कपड़े पहनें
इंसान को देखकर,
पड़े मेने ज्ञान के सारे ग्रन्थ
पर ऐसे मोन ज्ञान का क्या
जब हमने भटके हुए
समाज के लोगों को
सही राह दिखाई ही नहीं ।।

 गजल

आज फिर इश्क का चाव लगा है
दिल मैं फिर ये गहरा घाव लगा है
उनसे कर ली हैं
जब से बाते दो, चार
सुना है जमाने को
फिर हमारे इश्क को
सुन ने का चाव लगा है
धीरे धीरे बया हो इश्क, मोहब्बत
सुना है अब हर मोहब्बत का
बाज़ारो मैं भाव लगा है
कुछ गम तेरे कुछ गम मेरे
कुछ हसरतें तेरी कुछ हसरतें मेरी
इन्हीं को पाने का
जीवन भर का दांव लगा है
आज फिर इश्क का चाव लगा है
गुजरूं जो तेरी गली से
तेरी गली मैं महफ़िल
अपना घर अब ये
सुनसान लगा है
आज फिर इश्क का चाव लगा है

 

 

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