ऐ शाम मेहरबां हो-शामे-श्हरे-यारां -फ़ैज़ अहमद फ़ैज़-Hindi Poetry-कविता-Hindi Poem | Kavita Faiz Ahmed Faiz
ऐ शाम मेहरबां हो
ऐ शाम-ए-शहर-ए-यारां
हम पे मेहरबां हो
दोज़ख़ी दोपहर सितम की
बेसबब सितम की
दोपहर दर्दो-ग़ैज़ो-ग़म की
इस दोज़ख़ी दोपहर के ताज़ियाने
आज तन पर धनक की सूरत
कौस-दर-कौस बट गये हैं
ज़ख़्म सब खुल गये हैं जिनके,
दाग़ जाना था, छुट गये हैं
तेरे तोशे में कुछ तो होगा
मरहमे-दर्द का दुशाला
तन के उस अंग पर उढ़ा दे
दर्द सबसे सिवा जहां हो
ऐ शाम मेहरबां हो
ऐ शाम-ए-शहर-ए-यारां
हम पे मेहरबां हो
दोज़ख़ी दशत नफ़रतों की
किरचीयां दीदा-ए-हसद की
ख़स-ओ-ख़ाशाक रंजिशों के
इतनी सुनसान शाहराहें
इतनी गुंजान कत्लगाहें
जिनसे आये हैं हम गुज़रकर
आबला बनके हर कदम पर
यूं पांव कट गये हैं
रसते सिमट गये हैं
मखमलें अपने बादलों की
आज पांव तले बिछा दे
शाफ़ी-ए-करब-ए-रह-रवां हो
ऐ शाम मेहरबां हो
ऐ मह-ए-शब निगारां
ऐ रफ़ीक-ए-दिल-फ़िगारां
इस शाम हम ज़बां हो
ऐ शाम मेहरबां हो
ऐ शाम मेहरबां हो
ऐ शाम-ए-शहर-ए-यारां
हम पे मेहरबां हो