एक दकनी ग़ज़ल-शामे-श्हरे-यारां -फ़ैज़ अहमद फ़ैज़-Hindi Poetry-कविता-Hindi Poem | Kavita Faiz Ahmed Faiz
कुछ पहले इन आँखों आगे क्या-क्या न नज़ारा गुज़रे था
क्या रौशन हो जाती थी गली जब यार हमारा गुज़रे था
थे कितने अच्छे लोग कि जिनको अपने ग़म से फ़ुर्सत थी
सब पूछें थे अहवाल जो कोई दर्द का मारा गुज़रे था
अबके तो ख़िज़ाँ ऐसी ठहरी वो सारे ज़माने भूल गए
जब मौसमे-गुल हर फेरे में आ-आ के दुबारा गुज़रे था
थी यारों की बुहतात तो हम अग़यार से भी बेज़ार न थे
जब मिल बैठे तो दुश्मन का भी साथ गवारा गुज़रे था
अब तो हाथ सुझाइ न देवे लेकिन अब से पहले तो
आँख उठते ही एक नज़र में आलम सारा गुज़रे था
लंदन, 1979