एकांत-संगीत -हरिवंशराय बच्चन -Hindi Poetry-कविता-Hindi Poem | Kavita By Harivansh Rai Bachchan Part 9

एकांत-संगीत -हरिवंशराय बच्चन -Hindi Poetry-कविता-Hindi Poem | Kavita By Harivansh Rai Bachchan Part 9

अब क्या होगा मेरा सुधार

अब क्या होगा मेरा सुधार!

तू ही करता मुझसे बिगाड़,
तो मैं न मानता कभी हार,
मैं काट चुका अपने ही पग अपने ही हाथों ले कुठार!
अब क्या होगा मेरा सुधार!

संभव है तब मैं था पागल,
था पागल, पर था क्या दुर्बल,
चोटों में गाया गीत, समझ तू इसको निर्बल की पुकार!
अब क्या होगा मेरा सुधार!

फिर भी बल संचित करता हूँ,
मन में दम साहस भरता हूँ,
जिसमें न आह निकले मुख से जब हो तेरा अंतिम प्रहार!
अब क्या होगा मेरा सुधार!

 मैं न सुख से मर सकूँगा

मैं न सुख से मर सकूँगा!

चाहता जो काम करना,
दूर है मुझसे सँवरना,
टूटते दम से विफल आहें महज मैं भर सकूँगा!
मैं न सुख से मर सकूँगा!

गलतियाँ-अपराध, माना,
भूल जाएगा जमाना,
किंतु अपने आपको कैसे क्षमा मैं कर सकूँगा!
मैं न सुख से मर सकूँगा!

कुछ नहीं पल्ले पड़ा तो,
थी तसल्ली मैं लड़ा तो,
मौत यह आकर कहेगी अब नहीं मैं लड़ सकूँगा!
मैं न सुख से मर सकूँगा!

आगे हिम्मत करके आओ

आगे हिम्मत करके आओ!

मधुबाला का राग नहीं अब,
अंगूरों का बाग नहीं अब,
अब लोहे के चने मिलेंगे दाँतों को अजमाओ!
आगे हिम्मत करके आओ!

दीपक हैं नभ के अंगारे,
चलो इन्हीं के साथ सहारे,
राह? नहीं है राह यहाँ पर, अपनी राह बनाओ!
आगे हिम्मत करके आओ!

लपट लिपटने को आती है,
निर्भय अग्नि गान गाती है,
आलिंगन के भूखे प्राणी, अपने भुज फैलाओ!
आगे हिम्मत करके आओ!

मुँह क्यों आज तम की ओर?

मुँह क्यों आज तम की ओर?

कालिमा से पूर्ण पथ पर
चल रहा हूँ मैं निरंतर,
चाहता हूँ देखना मैं इस तिमिर का छोर!
मुँह क्यों आज तम की ओर!

ज्योति की निधियाँ अपरिमित
कर चुका संसार संचित,
पर छिपाए है बहुत कुछ सत्य यह तम घोर!
मुँह क्यों आज तम की ओर!

बहुत संभव कुछ न पाऊँ,
किंतु कैसे लौट आऊँ,
लौटकर भी देख पाऊँगा नहीं मैं भोर!
मुँह क्यों आज तम की ओर!

 विष का स्‍वाद बताना होगा

विष का स्‍वाद बताना होगा!

ढाली थी मदिरा की प्‍याली,
चूसी थी अधरों की लाली,
कालकूट आने वाला अब, देख नहीं घबराना होगा!
विष का स्‍वाद बताना होगा!

आँखों से यदि अश्रु छनेगा,
कटुतर यह कटु पेय बनेगा,
ऐसे पी सकता है कोई, तुझको हँस पी जाना होगा!
विष का स्‍वाद बताना होगा!

गरल पान करके तू बैठा,
फेर पुतलियाँ, कर-पग ऐंठा,
यह कोई कर सकता, मुर्दे, तुझको अब उठ गाना होगा!
विष का स्‍वाद बताना होगा!

कोई बिरला विष खाता है

कोई बिरला विष खाता है!

मधु पीने वाले बहुतेरे,
और सुधा के भक्त घनेरे,
गज भर की छातीवाला ही विष को अपनाता है!
कोई बिरला विष खाता है!

पी लेना तो है ही दुष्कर,
पा जाना उसका दुष्करतर,
बडा भाग्य होता है तब विष जीवन में आता है!
कोई बिरला विष खाता है!
स्वर्ग सुधा का है अधिकारी,
कितनी उसकी कीमत भारी!
किंतु कभी विष-मूल्य अमृत से ज्यादा पड़ जाता है!
कोई बिरला विष खाता है!

मेरा जोर नहीं चलता है

मेरा जोर नहीं चलता है!

स्वप्नों की देखी निष्ठुरता,
स्वप्नों की देखी भंगुरता,
फिर भी बार-बार आ करके स्वप्न मुझे निशिदिन छलता है!
मेरा जोर नहीं चलता है!

सूनेपन के सुंदरपन को,
कैसे दृढ़ करवा दूँ मन को!
उतनी शक्ति नहीं है मुझमें जितनी मन में चंचलता है!
मेरा जोर नहीं चलता है!

ममता यदि मन से मिट पाती,
देवों की गद्दी हिल जाती!
प्यार, हाय, मानव जीवन की सबसे भारी दुर्बलता है!
मेरा जोर नहीं चलता है!

मैंने शान्ति नहीं जानी है

मैंने शान्ति नहीं जानी है!

त्रुटि कुछ है मेरे अंदर भी,
त्रुटि कुछ है मेरे बाहर भी,
दोनों को त्रुटि हीन बनाने की मैंने मन में ठानी है!
मैंने शान्ति नहीं जानी है!

आयु बिता दी यत्नों में लग,
उसी जगह मैं, उसी जगह जग,
कभी-कभी सोचा करता अब, क्या मैंने की नादानी है!
मैंने शान्ति नहीं जानी है!

पर निराश होऊँ किस कारण,
क्या पर्याप्त नहीं आश्वासन?
दुनिया से मानी, अपने से मैंने हार नहीं मानी है!
मैंने शान्ति नहीं जानी है!