एकांत-संगीत -हरिवंशराय बच्चन -Hindi Poetry-कविता-Hindi Poem | Kavita By Harivansh Rai Bachchan Part 4

एकांत-संगीत -हरिवंशराय बच्चन -Hindi Poetry-कविता-Hindi Poem | Kavita By Harivansh Rai Bachchan Part 4

फिर वर्ष नूतन आ गया

फिर वर्ष नूतन आ गया!

सूने तमोमय पंथ पर,
अभ्यस्त मैं अब तक विचर,
नव वर्ष में मैं खोज करने को चलूँ क्यों पथ नया।
फिर वर्ष नूतन आ गया!
निश्चित अँधेरा तो हुआ,
सुख कम नहीं मुझको हुआ,
दुविधा मिटी, यह भी नियति की है नहीं कुछ कम दया।
फिर वर्ष नूतन आ गया!

दो-चार किरणें प्यार कीं, मिलती रहें संसार की,
जिनके उजाले में लिखूँ मैं जिंदगी का मर्सिया।
फिर वर्ष नूतन आ गया!

 यह अनुचित माँग तुम्हारी है

यह अनुचित माँग तुम्हारी है!

रोएँ-रोएँ तन छिद्रित कर
कहते हो, जीवन में रस भर!
हँस लो असफलता पर मेरी, पर यह मेरी लाचारी है।
यह अनुचित माँग तुम्हारी है!

कोना-कोना दुख से उर भर,
कहते हो, खोल सुखों के स्वर!
मानव की परवशता के प्रति यह व्यंग तुम्हारा भारी है।
यह अनुचित माँग तुम्हारी है!

समकक्षी से परिहास भला,
जो ले बदला, जो दे बदला,
मैं न्याय चाहता हूँ केवल जिसका मानव अधिकारी है।
यह अनुचित माँग तुम्हारी है!

क्या ध्येय निहित मुझमें तेरा

क्या ध्येय निहित मुझमें तेरा?

जन-रव में घुल मिल जाने से,
जन की वाणी में गाने से
संकोच किया क्यों करता है यह क्षीण, करुणतम स्वर मेरा?
क्या ध्येय निहित मुझमें तेरा?

जग-धारा में बह जाने से,
अपना अस्तित्व मिटाने से
घबराया करता किस कारण दो कण खारा आँसू मेरा?
क्या ध्येय निहित मुझमें तेरा?

क्यों भय से उठता सिहर-सिहर,
जब सोचा करता हूँ पल-भर,
उन कलि-कुसुमों की टोली पर,
जो आती संध्या को, प्रातः को कूच किया करती ड़ेरा?
क्या ध्येय निहित मुझमें तेरा?

 मैं क्या कर सकने में समर्थ

मैं क्या कर सकने में समर्थ?

मैं आधि-ग्रस्त, मैं व्याधि ग्रस्त,
मैं काल-त्रस्त, मैं कर्म-त्रस्त,
मैं अर्थ ध्येय में रख चलता, मुझसे हो जाता है अनर्थ!
मैं क्या कर सकने में समर्थ?

मुझसे विधि, विधि की सृष्टि क्रुद्ध,
मुझसे संसृति का क्रम विरुद्ध,
इसलिए व्यर्थ मेरे प्रयत्न, इस कारण सब प्रार्थना व्यर्थ!
मैं क्या कर सकने में समर्थ?

निर्जीव पंक्ति में निर्विवेक,
क्रंदन रख रचना पद अनेक-
क्या यह भी जग का कर्म एक?
मुझको अब तक निश्चित न हुआ, क्या मुझसे होगा सिद्ध अर्थ!
मैं क्या कर सकने में समर्थ?

पूछता, पाता न उत्‍तर

पूछता, पाता न उत्‍तर!

जब चला जाता उजाला,
लौटती जब विहग-माला
“प्रात को मेरा विहग जो उड़ गया था, लौट आया?”
पूछता, पाता न उत्‍तर!

जब गगन में रात आती,
दीप मालाएँ जलाती,
“अस्‍त जो मेरा सितारा था हुआ, फिर जगमगाया?”
पूछता, पाता न उत्‍तर!

पूर्व में जब प्रात आता,
भृंग-दल मधुगीत गाता,
“मौन जो मेरा भ्रमर था हो गया, फिर गुनगुनाया?”
पूछता, पाता न उत्‍तर!

 तब रोक न पाया मैं आँसू

तब रोक न पाया मैं आँसू!

जिसके पीछे पागल होकर
मैं दौड़ा अपने जीवन-भर,
जब मृगजल में परि‍वर्तित हो मुझपर मेरा अरमान हँसा!
तब रोक न पाया मैं आँसू!

जिसमें अपने प्राणों को भर
कर देना चाहा अजर-अमर,
जब विस्‍मृति के पीछे छिपकर मुझ पर वह मेरा गान हँसा!
तब रोक न पाया मैं आँसू!

मेरे पूजन-आराधन को,
मेरे संपूर्ण समर्पन को,
जब मेरी कमजोरी कहकर मेरा पूजित पाषाण हँसा!
तब रोक न पाया मैं आँसू!

 गंध आती है सुमन की

गंध आती है सुमन की!
किस कुसुम का श्वास छूटा?
किस कली का भाग्य फूटा?
लुट गयी सहसा खुशी इस कालिमा में किस चमन की?
गंध आती है सुमन की!

आज कवि का हृदय टूटा,
आज कवि का कंठ फूटा,
विश्व समझेगा हुई क्षति आज क्या मेरे भवन की!
गंध आती है सुमन की!

अल्प गंध, विशाल आँगन,
गीत क्षीण, प्रचंड़ क्रंदन,
है असंभव गमक, गुंजन,
एक ही गति है कुसुम के प्राण की, कवि के वचन की!
गंध आती है सुमन की!

है हार नहीं यह जीवन में

है हार नहीं यह जीवन में!

जिस जगह प्रबल हो तुम इतने,
हारे सब हैं मानव जितने,
उस जगह पराजित होने में है ग्लानि नहीं मेरे मन में!
है हार नहीं यह जीवन में!

मदिरा-मज्जित कर मन-काया,
जो चाहा तुमने कहलाया,
क्या जीता यदि जीता मुझको मेरी दुर्बलता के क्षण में!
है हार नहीं यह जीवन में!

सुख जहाँ विजित होने में है,
अपना सब कुछ खोने में है,
मैं हारा भी जीता ही हूँ जग के ऐसे समरांगण में!
है हार नहीं यह जीवन में!

 मत मेरा संसार मुझे दो

मत मेरा संसार मुझे दो!

जग की हँसी, घृणा, निर्ममता
सह लेने की तो दो क्षमता,
शांति भरी मुस्कानों वाला यदि न सुखद परिवार मुझे दो!
मत मेरा संसार मुझे दो!

ज्योति न को ऐसी तम घन में,
राह दिखा, दे धीरज मन में,
जला मुझे जड़ राख बना दे ऐसे तो अंगार मुझे दो!
मत मेरा संसार मुझे दो!

योग्य नहीं यदि मैं जीवन के,
जीवन के चेतन लक्षण के,
मुझे खुशी से दो मत जीवन, मरने का अधिकार मुझे दो!
मत मेरा संसार मुझे दो!

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