उस दिन अनंत मध्यरात-बांग्ला कविता(अनुवाद हिन्दी में) -शंख घोष -Hindi Poetry-कविता-Hindi Poem | Kavita Shankha Ghosh
उस दिन अनंत आधी रात को
राह में हुई थी बारिश
टूट गए थे घर और पेड़ों को मिली थी हवा
सुपारी की टहनियों की फुनगी पर
रुपहले पानी की प्रभा थी
और अँधेरे में थी — हृदयहीन अँधेरे में
ज़मीन पर सुला दी गई नावें
उनके सीनों में जम गई थी बारिश
भीगी छाल की साँसें
किसी शून्यता के भीतर स्तब्ध हो गई थीं
मिट्टी और आकाश ने सिर्फ़ पुल बनकर बाँधी थी धारा
जीवन और मृत्यु के ठीक बीचोबीच
वायवीय जाल को कँपाते
उतर आए थे अतीत, अभाव और अवसाद
पत्थर की प्रतिमा ने
इसीलिए पत्थर पर रखा था अपना सफे़द चेहरा
और चारों ओर अविरल झर रही थी बारिश
बारिश नहीं, शेफाली, टगर, गंधराज थी वे बूँदें
घरविहीन देह के उड़ते जाते मलिन इशारों से
वे पोंछ लेना चाहते हैं अपने जीवन के अंतिम अपमान
सीने में हुई थी बारिश
उस दिन अनंत आधी रात।