उभरते प्रतिमानों के रूप-हरिवंशराय बच्चन -Hindi Poetry-कविता-Hindi Poem | Kavita By Harivansh Rai Bachchan Part 2

उभरते प्रतिमानों के रूप-हरिवंशराय बच्चन -Hindi Poetry-कविता-Hindi Poem | Kavita By Harivansh Rai Bachchan Part 2

पाँच मूर्तियाँ

यह विखंडित मूर्ति
मथुरा की सड़क पर
मिली मुझको,
शीश-हत,
जाँघें पसारे
खुले में विपरीत-रति-रत
अरे, यह तो पंश्‍चुली है!

यह कुमारी,
एक व्‍याभिचारी मुहल्‍ले की गली में
गले में डाले सुमिरनी,
नत-नयन,
प्रवचन रहस्‍य-भरा न जाने कौन, किसको,
मूक वाणी में सुनाती।
यह अछूती,
स्‍वच्‍छ पंकज की काली है!

शेर यह-
निर्भीक-मुद्रा-
था वहाँ पर पड़ा
चरती हैं बकरियाँ तृण
भूलकर, वह सिंह की औलाद
पौरूष मूर्त है,
अतिशय बली है।

और यह शिशु,
सरल, निश्‍छल,
सुप्‍त, स्‍वप्निल,
शुभ्र, निर्मल,
है पड़ा असहाय-सा
मल-मूत्र, गंद, ग़लीज़ के दुर्गंध-गच, गहरे गटर में।
शरण को आई यहाँ पर
किस प्रणय की बेकली है!

ओ गरूड़,
तेरी जगह तो गगन में,
भूमि पर कैसे पड़ा है,
पोटली की भाँति गुड़मुड़।
घूरना था जिस नज़र से सूर्य को
तू मुझे अनिमिष देखा है।
बाहुओं में अब कहाँ बल,
उम्र मेरी ढल चली है।

पंश्‍चुली,
श्रीकृष्‍ण की जन्‍मस्‍थली
यह तीर्थ है,
इसको अपावन मत बना तू।
पौर कवि का ठौर तेरा,
जिस जगह सब कलुष-कल्‍मष
शब्‍द-स्‍वाहा?
कहीं उद्धारक नहीं है तेरा।

ओ कुमारी सुन,
सुरक्षित है नहीं कौमार्य तेरा
इस गली में।
कान किसके है सुने व्‍याख्‍यान तेरा,
मौन, समझे।
चल जहाँ कवि का तपस्‍थल,
जिस जगह मनुहार अविचल
कर रहा है वह गिरा की-
नहीं जो अब तक पसीजी-
बहु छुए, बहुबार दुहराए स्‍वरों से;
और दे कुछ अनछुए स्‍वर-शब्‍द
जो हो, सुखद, सुपद, महार्थ अर्पित हों गिरा को,
और कर दें तुष्‍ट
उस रस-रुप-ध्‍वनि-लय-
छंद और अछंदमय मंगलमना को।

पाठ पहला,
पाठ अंतिम,
विश्‍व की इस पाठशाला का
कि पहचानो स्‍वयं को,
सिंह तू।
कवि के यहाँ चल।
है वहीं कांतार, अमित-प्रसार,
जिसमें तू निशंक-विमुक्‍त विचरण,
मुक्‍त गर्जन कर सकेगा।
तू सिखा सौ जन्‍म तक भी रोज़
मिमियाना बकरियाँ छोड़नेवाली नहीं हैं।
और मेरे यहाँ कल से ही तुझे
हरि-वंश प्रतिद्वंद्वी मिलेगा।
साथ दे आवाज़, चाहे दे चुनौती,
सोचनामुझको नहीं,
स्‍वीकार करता हूँ इसी पल;
है नहीं सौभाग्‍य इससे बड़ा कोई,
मित्र समबल मिले,
या फिर शत्रु समबल!

आज दे प्रश्रय हृदय में
स्‍वप्‍नगत रूमानियत को
मैं नहीं तुझसे कहूँगा,
तू नबी है।
कटु-कठोर यथार्थ जीवन का बहुत-कुछ
देख मैं अब तक चुका हूँ,
और तेरा जन्‍म ही
रूमानियत की लाश के ऊपर हुआ है।
जो तुझे मैं दे रहा हूँ
एक मानव के लिए,
बस, एक मानव की दुआ है।
तुझे मैं अपने भवन ले चल रहा हूँ-
वह कुमारी क्‍या प्रसव की पीर जाने,
पुंश्‍चली जाने सुवन का स्‍नेह कैसे!
मैं प्रसव की वेदना,
वात्‍सल्‍य-दोनों जानता हूँ,
क्‍योंकि कवि हूँ।
जो अपने आप में हो अस्‍त,
अपने आप में होता उदय,
मैं स्‍वल्‍प रवि हूँ-
एक ही में माँ तथा शिशु!-
चल, वहीं पल
आत्‍मजों के बीच मेरे, हो न उन्‍मन,
मैं तुझे संवेदना ही नहीं दूँगा,
समा लूँगा तुझे अपने में
कि तुझमें समाऊँगा।
माँ तुझे दूँगा,
स्‍वयंजो शिशु सनातन।
(सार्थक है नाम बच्‍चन)

पन्‍नगाशन,
छोड़ भू का संकुचित-संपुटित आसन।
उदर-ज्‍वाला शांत करने,
उरग भक्षण के लिए
उतरा धरा पर था कि तू खा-अधा
अलसाया हुआ,
लेता उबासी ऊँधता है!
जानता है?
बहुत दिवसों से तुझे
आकाश कवि का ढूँढता है।
समय ने कमज़ोर क्‍या, बेकार पाँवों को किया है,
किंतु उड़ने के नलए अब भी हिया है।
वैनतेय, पसार डैने,
नहीं मानी हार मैंने
मैं समो दूँगा उन्‍हीं में
आज अपने को,
उड़ा ले जा मुझे ऊँचाइयों को-अभ्रभेदी।
धरा पर धरा भी तो ठीक दिखलाई न देती।
और ज्‍योति:क्षीण मेरे चक्षुओं को,
तार्क्ष्‍य, दे निज भी अंगारवर्षी।
अभी काम बहुत बड़ा है,
बहुत कुछ जर्जर, गलित, मृत,
काल-मर्दित,
नया बह आया, भयावह, अनृत
दुर्दर्शन, अशोभन,
क्षर, अवांछित,
अनुपयोगी,
घृणित, गर्हित
भस्‍म करने को पड़ा है।

‘वोलगा से गंगा तक’

बाल सूर्य
वोलगा किनारे उदय हुआ है;
उसे सलामी दी है
लोहे के ऊँचे-लम्बे क्रेनों ने,
अपने-अपने हाथ उठाकर ।
फ़ैक्टरियों की, मिलों, कारखानों की,
काली मीनारी चिमनियां
धुआँ उगलने लगी हैं,
जो उठकर सूरज के मुख पर
फैल गया है,
जैसे उसके दाढ़ी-मूंछें निकल आई हों,
सोन घटायों से
उसके सिर लटें सजाता आसमान है,

(शीर्षक के लिए लेखक स्व. राहुल
सांकृत्यायन का ॠणी है, जिसकी
इसी नाम की एक पुस्तक है ।)

 तनाव

जो सुन्दर थी,
सरल थी,
कमनीय थी,
कुलीन थी,
संस्कारी थी,
जो सौम्य थी,
शिष्ट थी,
शालीन थी,
पावन थी,
पावनकारी थी,
उस अक्षतयोनि कुमारी पर
तुमने सरे बाज़ार
इस बेहयाई से
बलात्कार किया है
कि वह मसली, मींजी, रौंदी, रगड़ी, रेती,
रीती भी,
किसी घृणित, पतित, कलंकित से भी
अब गई-बीती है;
और ऐसा लगता है,
एक मूल्य था
जो नष्ट हो गया है !

और मेरे लिए
इसके सिवा कोई चारा नहीं
कि किसी पतित, घृणित, कलंकित को
उठाऊं,
उसे प्यार करूं,
उसका कलंक धोंऊं-
भले ही दुनिया की नज़रों में
बदनाम होऊं-
पर
किंतु-
परंतु
लेकिन-
गिरे को उठाना
कितने ऊंचे का काम है;
जिसे सब नफ़रत करते हैं
उसे प्यार करने के लिए
कितनी हिम्मत चाहिए;
जिसे दूसरों के धब्बे धोने हैं,
उसे अपना कितना रक्त देना पड़ता है !
और न मैं ऊपर-उठा
न साहसी,
न सशक्त,
मेरे दिमाग़ की नसों में है रस्साकशी-
मुझे बड़ा कष्ट हो गया है ।
एक मूल्य था
जो नष्ट हो गया है !