उतरी थी शहरे-गुल में कोई आतिशी किरन-दर्द आशोब -अहमद फ़राज़-Hindi Poetry-हिंदी कविता -Hindi Poem | Hindi Kavita Ahmed Faraz,
उतरी थी शहरे-गुल में कोई आतिशी किरन
वो रोशनी हुई कि सुलगने लगे बदन
ग़ारतगरे-चमन से अक़ीदत थी किस क़दर
शाख़ों ने ख़ुद उतार लिए अपने पैरहन
इस इन्तहा-ए-क़ुर्ब ने धुँदला दिया तुझे
कुछ दूर हो कि देख सकूँ तेरा बाँकपन
मैं भी तो खो चला था ज़माने के शोर में
ये इत्तिफ़ाक़ है कि वो याद आ गए म’अन
जिसके तुफ़ैल मुहर-ब-लब हम रहे ‘फ़राज़’
उसके क़सीदा-ख़्वाँ हैं सभी अहले-अंजुमन