इस तिरंगे को कभी झुकने न दोगे-वतन तुम्हारे साथ है-शंकर लाल द्विवेदी -Hindi Poetry-कविता-Hindi Poem | Kavita Shankar Lal Dwivedi
मृत्यु पर आँसू बहाना-व्यर्थ होगा,
रीत जाएँगे नयन, पर क्या मिलेगा?
एक-दो क्षण दीप्त हूँ, कुछ माँगता हूँ-
देश मेरी साध की झोली भरेगा।।
स्नेह आजीवन तुम्हें देती रही यह-
भूमि जिस पर तुम-गुलाबों से खिलोगे।
दे सको, तो दो उसे इतना वचन, तुम-
इस तिरंगे को कभी झुकने न दोगे।।
रक्त दे कर जो हुई उपलब्ध हमको,
बेलि यह स्वाधीनता की माँगती है।
स्वेद-कण, गतिमय चरण, सौहार्द्र मन का,
और बलि, इस देवि की शुभ आरती है।।
शैल-श्रृंगों पर धुआँ क्यों उठ रहा है?
भेद सहसा, सैकड़ों कैसे खुले हैं?
चित्र जो मुख- पृष्ठ पर छपने लगे हैं।
देश को पथ-भ्रष्ट करने पर तुले हैं।।
कर सको तो प्रण करो, मुख- पृष्ठ पर, फिर-
सभी उनको कभी छपने न दोगे।।
दौड़ना सम्भव नहीं, इस का प्रयोजन-
यह नहीं है, बन्द चलना भी करें हम।
हो न पाए ज्ञान-अर्जन, अर्थ इसका-
यह नहीं है गाँठ में बाँधे फिरें भ्रम।।
परमुखापेक्षी बनो मत, कर्मरत् हो,
प्रार्थना से साधना श्रेयस्करी है।
लक्ष्य तक जाते हुए मिट भी गए, तो-
अवनि के उस छोर पर अलकापुरी है।।
भर सको तो भावना ऐसी भरो तुम,
चरण की गति को कभी रुकने न दोगे।।
आत्मा क्लीवत्व की चिर्-संगिनी हो,
मान्यता अपनी कभी ऐसी नहीं थी।
बाँसुरी पर थिरकने वाली, सुदर्शन-
चक्र पा कर, आँगुरी बहकी नहीं थी।।
न्याय के हित में नियम-बंधन कभी, यदि-
तोड़ने पड़ जाएँ, निःसंकोच तोड़ो।
आँधियों से मत डरो, ओ अमृत-पुत्रो!
भारतीयो! तुम कभी रथ को न मोड़ो।।
मिट सको, तो देश के हित में मिटो, तुम-
अब किसी कण को, कभी बँटने न दोगे।।
भ्रष्ट योगी की तरह विक्षिप्त मत हो,
आचरण पर आवरण चढ़ने लगेगा।
काव्य का माधुर्य छोड़, विकल्प-वश हो-
छात्र कोई व्याकरण पढ़ने लगेगा।।
मणि मिलेगी, इसलिए मणिधर न पालो,
आग से खेलो, मगर अंचल बचा कर।
क्रीत करनी हैं दुहनियाँ, तो उचित है-
देख लो विधिवत् उन्हें पहले बजा कर।
वर सको, तो धैर्य का संबल वरो, तुम-
आँसुओं को धूल में मिलने न दोगे।।
नासिका पर कीट बैठा ऊँघता है,
मार कर दुर्गंध, मन को क्लांति होगी।
जग रहे हो यह जताना, है ज़रूरी,
सुप्त हो तुम, स्यात् उसको भ्रान्ति होगी।।
किन्तु काटे, तो उसे भी मारने में,
कुछ बुराई खोजना हितकर नहीं है।
अर्चना के समय,जो दीपक बुझा दे-
श्वास अपनी भी मुझे रुचिकर नहीं है।
बन सको तो कृष्ण बन इतना करो, तुम-
द्रौपदी का चीर अब खिंचने न दोगे।।
व्यक्ति का जीवन- धरोहर देश की है,
गहनता के साथ फैले, तो उचित है।
अन्यथा अति-वृष्टि जल की भाँति, उसका-
सूखना, सत्वर सिमट जाना विहित है।।
इस तरह अस्तित्व की रक्षा करो मत,
पास का व्यक्तित्व- कुंठित, नष्ट हो ले।
नाव में जब सब खड़े हों, एक सोए-
यह असम्भव है कि कोई कुछ न बोले।
कर सको तो यत्न कुछ ऐसा करो, तुम-
कलह के अंकुर कभी उगने न दोगे।।
-२६ मार्च, १९६५