आराधना-सूर्यकांत त्रिपाठी निराला -Hindi Poetry-कविता-Hindi Poem | Suryakant Tripathi Nirala Part 3
भग्न तन, रुग्ण मन
भग्न तन, रुग्ण मन,
जीवन विषण्ण वन ।
क्षीण क्षण-क्षण देह,
जीर्ण सज्जित गेह,
घिर गए हैं मेह,
प्रलय के प्रवर्षण ।
चलता नहीं हाथ,
कोई नहीं साथ,
उन्नत, विनत माथ,
दो शरण, दोषरण ।
अशरण-शरण राम
अशरण-शरण राम,
काम के छवि-धाम ।
ऋषि-मुनि-मनोहंस,
रवि-वंश-अवतंस,
कर्मरत निश्शंस,
पूरो मनस्काम ।
जानकी-मनोरम,
नायक सुचारुतम,
प्राण के समुद्यम,
धर्म धारण श्याम ।
ऊर्ध्व चन्द्र, अधर चन्द्र
ऊर्ध्व चन्द्र, अधर चन्द्र,
माझ मान मेघ मन्द्र ।
क्षण-क्षण विद्युत प्रकाश,
गुरु गर्जन मधुर भास,
कुज्झटिका अट्टहास,
अन्तर्दृग विनिस्तन्द्र ।
विश्व अखिल मुकुल-बन्ध
जैसे यतिहीन छन्द,
सुख की गति और मन्द,
भरे एक-एक रन्ध्र ।
रहते दिन दीन शरण भज ले
रहते दिन दीन शरण भज ले ।
जो तारक सत वह पद-रज ले ।
दे चित अपने ऊपर के हित
अंतर के बाहर के अवसित
उसको जो तेरे नहीं सहित
यों सज तू, कर सत की धज ले ।
जब फले न फल तू हो न विकल,
करके ढब करतब को कर कल;
इस जग के मग तू ऐसे चल,
नूपुर जैसे उर में बज ले ।
बात न की तो क्या बन आती
बात न की तो क्या बन आती ।
नूपुर की कब रिन-रन आती ।
बन्द हुई जब उर की भाषा,
समर विजय की तब क्या आशा,
बढ़ी नित्यप्रति और निराशा,
बिना डाल कलि क्या तन आती ?
बली वारिद के बिना जुआ है,
मुख न रहा तो असुख मुआ है,
कलप-कलप कर कलुष हुआ है,
दो नहीं मिले क्या ठन आती ?
पार-पारावार जो है
पार-पारावार जो है
स्नेह से मुझको दिखा दो,
रीति क्या, कैसे नियम,
निर्देश कर करके सिखा दो ।
कौन से जन, कौन जीवन,
कौन से गृह, कौन आंगन,
किन तनों की छांह के तन,
मान मानस में लिखा दो ।
पठित या निष्पठित वे नर,
देव या गंधर्व किन्नर,
लाल, पीले, कृष्ण धूसर,
भजन क्या भोजन चखा दो ।