आरती और अंगारे -हरिवंशराय बच्चन -Hindi Poetry-कविता-Hindi Poem | Kavita By Harivansh Rai Bachchan Part 3
मैंने जीवन देखा, जीवन का गान किया
मैंने जीवन देखा, जीवन का गान किया।
वह पट ले आई, बोली, देखो एक तरु़,
जीवन-उषा की लाल किरण, बहता पानी,
उगता सरोवर, खर चोंच दबा उड़ता पंछी,
छूता अंबर को धरती का अंचल धानी;
दूसरी तरफ़ है मृत्यु-मरुस्थल की संध्या
में राख धूएँ में धँसा कंकाल पड़ा।
मैंने जीवन देखा, जीवन का गान किया।
ऊषा की कीरणों से कंचन की वृष्टि हुई,
बहते पानी में मदिरा की लहरें आई,
उगते तरुवर की छाया में प्रमी लेटे,
विहगावलि ने नभ में मुखरित की शहनाई,
अंबर धरती के ऊपर बन आशीष झुका
मानव ने अपने सुख-दु:ख में, संघर्षों में;
अपनी मिट्टी की काया पर अभिमान किया।
मैंने जीवन देखा, जीवन का गान किया।
मैं कभी, कहीं पर सफ़र ख़्त्म कर देने को
तैयार सदा था, इसमें भी थी क्या मुश्किल;
चलना ही जिका काम रहा हो दुनिया में हर एक क़दम के ऊपर है उसकी मंज़िल;
जो कल मर काम उठाता है वह पछताए,
कल अगर नहीं फिर उसकी क़िस्मत में आता;
मैंने कल पर कब आज भला बलिदान किया।
मैंने जीवन देखा, जीवन का गान किया।
कालो, काले केशों में काला कमल सजा,
काली सारी पहने चुपके-चुपके आई,
मैं उज्ज्वल-मुख, उजले वस्त्रों में बैठा था
सुस्ताने को, पथ पर थी उजियाली छाई,
‘तुम कौन? मौत? मैं जीने की ही जोग-जुगत
में लगा रहा।’ बोली, ‘मत घबरा, स्वागत का
मेरे, तूने सबसे अच्छा सामान किया।’
मैंने जीवन देखा, जीवन का गान किया।
मैंने ऐसा कुछ कवियों से सुन रक्खा था
मैंने ऐसा कुछ कवियों से सुन रक्खा था
जब घटनाएँ छाती के ऊपर भार बनें,
जब साँस न लेने दे दिल को आज़ादी से
टूटी आशाओं के खंडहर, टूटे सपने,
तब अपने मन को बेचैनी की छंदों में
संचित कर कोई गए और सुनाए तो
वह मुक्त गगन में उड़ने का-सा सुख पाता।
लेकिन मेरा तो भार बना ज्यों का त्यों है,
ज्यों का त्यों बंधन है, ज्यों की त्यों बाधाएँ।
मैंने गीतों को रचकर के भी देख लिया।
‘वे काहिल है जो आसमान के परदे पर
अपने मन की तस्वीर बनाया करते हैं,
कर्मठ उनके अंदर जीवन के साँसें भर
उनको नभ से धरती पर लाया करते हैं।’
आकाशी गंगा से गन्ना सींचा जाता,
अंबर का तारा दीपक बनकर जलता है,
जिसके उजियारी बैठ हिसाब किया जाता।
उसके जल में अब नहीं ख्याल नहीं बैठे आते,
उसके दृग से अब झरती रस की बूँद नहीं,
मैंने सपनों को सच करके भी देख लिया।
यह माना मैंने खुदा नहीं मिल सकता है
लंदन की धन-जोबन-गर्विली गलियों में,
यह माना उसका ख्याल नहीं आ सकता है
पेरिस की रसमय रातों की रँरलियों में,
जो शायर को है शानेख़ुदा उसमें तुमको
शैतानी गोरखधंधा दिखलाई देता,
पर शेख, भुलावा दो जो भोलें हैं।
तुमने कुछ ऐसा गोलमाल कर रक्खा था,
खुद अपने घर में नहीं खुदा का राज मिला,
मैंने काबे का हज़ करके भी देख लिया।
रिंदों ने मुझसे कहा कि मदिरा पान करो,
ग़म गलत इसी से होगा, मैंने मान लिया,
मैं प्याले में डूबा, प्याला मुझमें डूबा,
मित्रों ने मेरे मनसुबों को मान दिया।
बन्दों ने मुझसे कहा कि यह कमजो़री है,
इसको छोड़ो, अपनी इच्छा का बल देखो,
तोलो; मैंने उनका कहना भी कान किया।
मैं वहीं, वहीं पर ग़म है, वहीं पर दुर्बलताएँ हैं,
मैंने मदिरा को पी करके भी देख लिया,
मैंने मदिरा को तज करके भी देख लिया।
मैंने काबे का हज़ करके भी देख लिया।
मैंने सपनों को सच करके भी देख लिया।
मैंने गीतों को रच करके भी देख लिया।
रात की हर साँस करती है प्रतीक्षा
रात की हर साँस करती है प्रतीक्षा-
द्वार कोई खटखटाएगा!
दिवस का अब मुझ पर नहीं अब
कर्ज़ बाकी रह गया है,
जगत के प्रति भी न कोई
फर्ज़ बाक़ी रह गया है,
जा चुका जाना जहाँ था,
आ चुके आना जिन्हें था,
इस उदासी के अँधेरे में बता, मन,
कौन आकर मुसकराएगा?
रात की हर साँस करती है प्रतीक्षा-
द्वार कोई खटखटाएगा!
‘वह की जो अंदर स्वयं ही
आ सकेगा खोल ताला,
वह, भरेगा हास जिसका
दूर कानों में उजला,
वह कि जो इस ज़िन्दगी की
चीख़ और पुकार को भी
एक रसमय रागिनी का रूप दे दे
एक ऐसा गीत गाएगा।’
रात की हर साँस करती है प्रतीक्षा-
द्वार कोई खटखटाएगा!
मौन पर मैं ध्यान इतना
दे चुका हूँ बोलता-सा
पुतलियाँ दो खोलता-सा,
लाल, इतना घूरता मैं
एकटक उसको रहा हूँ,
पर कहाँ स्रगी है वह, ज्योति है वह
जो कि अपने साथ लाएगा?
रात की हर साँस करती है प्रतीक्षा-
द्वार कोई खटखटाएगा!
और बारंबार मैं बलि-
हार उसपर जो न आया,
औ’ न आने का समय-दिन
ही कभी जिसने बताया,
और आधी ज़िंदगी भी
कट गई जिसको परखते,
किंतु उठ पाता नहीं विश्वास मन से-
वह कभी चुपचाप आएगा।
रात की हर साँस करती है प्रतीक्षा-
द्वार कोई खटखटाएगा!
यह जीवन औ’ संसार अधूरा इतना है
यह जीवन औ’ संसार अधूरा इतना है।
कुछ बे तोड़े कुछ जोड़ नहीं सकता कोई।
तुम जिस लतिका पर फूली हो, क्यों लगता है,
तुम उसपर आज पराई हो?
मैं ऐसा अपने-ताने बाने के अंदर
जैसे कोई बलबाई हो।
तुम टूटोगी तो लतिका का दिल टूटेगा,
मैं निकलूँगा तो चादर चिरबत्ती होगी।
यह जीवन औ’ संसार अधूरा इतना है।
कुछ बे तोड़े कुछ जोड़ नहीं सकता कोई।
पर इष्ट जिसे तुमने माना, मैंने माना,
माला उसको पहनानी है,
जिसको खोजा, उसकी पूजा कर लेने में
हो जाती पूर्ण कहानी है;
तुमको लतिका का मोह सताता है, सच है,
आता है मुझको बड़ा रहम इस चादर पर;
निर्माल्य देवता का व्रत लेकर
हम दोनों में से तोड़ नहीं सकता कोई।
यह जीवन औ’ संसार अधूरा इतना है।
कुछ बे तोड़े कुछ जोड़ नहीं सकता कोई।
हर पूजा कुछ बलिदान सदा माँगा करती,
लतिका का मोह मिटाना है;
हर पूजा कुछ विद्रोह सदा कुछ चाहा करती,
इस चादर को फट जाना है।
माला गूँथी, देवता खड़े हैं, पहनाएँ;
उनके अधरों पर हास, नयन में आँसू हैं।
आरती देवता की मुसकानों की लेकर
यह अर्ध्य दृगों को छोड़ नहीं सकता कोई।
यह जीवन औ’ संसार अधूरा इतना है।
कुछ बे तोड़े कुछ जोड़ नहीं सकता कोई।
तुमने किसको छोड़ा? सच्चाई तो यह है,
कुछ अपनापन ही छूट गया।
मैंने किसको तोड़ा? सच्चाई तो यह है,
कुछ भीतर-भीतर टूट गया।
कुछ छोड़ हमें भी पाएँगे, कुछ तोड़ हमें
भी जाएँगे, जब बनने को वे सोचेंगे,
पर हमसे वे छूटेंगे, वे टूटेंगे;
जग-जीवन की गति मोड़ नहीं सकता कोई।
यह जीवन औ’ संसार अधूरा इतना है।
कुछ बे तोड़े कुछ जोड़ नहीं सकता कोई।
मैं अभी ज़िन्दा, अभी यह शव-परीक्षा मैं तुम्हें करने न दूँगा
मैं अभी ज़िन्दा, अभी यह
शव-परीक्षा मैं तुम्हें करने न दूँगा।
देखता हूँ तुम सफे़द नक़ाब
सिर से पाँव तक डाले हुए हो;
क्या कफ़न को ओढ़ने से
मर गए तुम लोग! मतवाले हुए हो?
नश्तरों की लौ लगी है,
मेज़ मुर्दों को लेटाने की पड़ी है।
मैं अभी ज़िन्दा, अभी यह
शव-परीक्षा मैं तुम्हें करने न दूँगा।
आँख मेरी आज भी मानव-
नयन की गूढ़तर तह तक उतरती,
आज भी अन्याय पर
अंगार बनती; अश्रुधारा में उमड़ती,
जिस जगह इंसान की
इंसानियत लाचार उसको कर गई है।
तुम यह नहीं देखते तो
मैं तुम्हारी आँख पर अचरज करूँगा।
मैं अभी ज़िन्दा, अभी यह
शव-परीक्षा मैं तुम्हें करने न दूँगा।
आज भी आवाज़ जो मेरे
कलेजे से, गले से है निकलती,
गूँजती कितने गलों में
और कितने ही दिलों में है मचलती,
मौन एकाकी पलों का
भंग करती, औ’ मिलन में एक मन को
दूसरे पर व्यत करती,
चुप न होगी, जबकि मैं भी मूक हूँगा।
मैं अभी ज़िन्दा, अभी यह
शव-परीक्षा मैं तुम्हें करने न दूँगा।
आज भी जो साँस मुझमें
चल रही है वह हवा भर ही नहीं है,
है इसी की चाल पर
इतिहास चलता और संस्कृति चल रही है;
और क्या इतिहास, क्या संस्कृति
कि जीवन में मनुज विश्वास रक्खे;
मैं इसी विश्वास को हर
साँस से कहता रहा, कहता रहूँगा।
मैं अभी ज़िन्दा, अभी यह
शव-परीक्षा मैं तुम्हें करने न दूँगा।
काग़ज़ों की भी नकाबें
डालकर इंसानियत कोई छिपाते,
काग़ज़ों के भी कफ़न को
ओढ़ धड़कनें दिल की दबाते;
शव-परीक्षा के लिए
तैयार जो हैं, शव प्रथम वे बन चुके हैं,
किंतु मेरे स्वर निरर्थक
हैं, अगर वे हैं न पर्दों को हटाते,
हैं न दिल को खटखटाते,
हैं न मुर्दों को हिलाते औ’ जगाते।
मैं अभी मुर्दा नहीं हूँ,
और तुमको भी अभी मरने न दूँगा।
मैं अभी ज़िन्दा, अभी यह
शव-परीक्षा मैं तुम्हें करने न दूँगा।