आरती और अंगारे -हरिवंशराय बच्चन -Hindi Poetry-कविता-Hindi Poem | Kavita By Harivansh Rai Bachchan Part 2
इस रुपहरी चाँदनी में सो नहीं सकते पखेरू और हम भी
इस रुपहरी चाँदनी में सो नहीं सकते पखेरू और हम भी।
पूर्णिमा का चाँद अंबर पर चढ़ा है,
तारकावली खो गई है,
चाँदनी में वह सफ़ेदी है कि जैसे
धूप ठंडी हो गई है;
नेत्र-निद्रा में मिलन की वीथियों में
चाहिए कुछ-कुछ अँधेरा;
इस रुपहरी चाँदनी में सो नहीं सकते पखेरू और हम भी।
नीड़ अपने छोड़ बैठे डाल पर कुछ
और मँडलाते हुए कुछ,
पंख फड़काते हुए कुछ, चहचहाते,
बोल दुहराते हुए कुछ,
‘चाँदनी फैली गगन में, चाह मन में,
गीत किसका है? सुनाओ!
मौन इस मधुयामिनी में हो नहीं सकते पखेरु और हम भी।
इस रुपहरी चाँदनी में सो नहीं सकते पखेरू और हम भी।
इस तरह की रात अंबर कि अजिर में
रोज़ तो आती नहीं है,
चाँद के ऊपर जवानी इस तरह की
रोज़ तो छाती नहीं है,
हम कभी होंगे अलग औ’ साथ होर
भी कभी, होगी तबीयत,
यह विरल अवसर विसुधि में खो नहीं सकते पखेरु और हम भी।
इस रुपहरी चाँदनी में सो नहीं सकते पखेरू और हम भी।
ये बिचारे तो समझते हैं कि जैसे
यह सवेरा हो गया है,
प्रकृति के नियमावली में क्या अचानक
हेर-फेरा हो गया है;
और जो हम सब समझते हैं कहाँ इस
ज्योति का जादू समझते,
मुक्त जिसके बंधनों से हो नहीं सकते पखेरु और हम भी।
इस रुपहरी चाँदनी में सो नहीं सकते पखेरू और हम भी।
आज चंचला की बाहों में उलझा दी हैं बाहें मैंने
आज चंचला की बाहों में उलझा दी हैं बाहें मैंने।
डाल प्रलोभन में अपना मन
सहल फिसल नीचे को जाना,
कुछ हिम्मत का काम समझते
पाँव पतन की ओर बढ़ाना;
झुके वहीं जिस थल झुकने में
ऊपर को उठना पड़ता है;
आज चंचला की बाहों में उलझा दी हैं बाहें मैंने।
काँटों से जो डरने वाले
मत कलियों से जो नेह लगाएँ,
घाव नहीं है जिन हाथों में,
उनमें किस दिन फूल सुहाए,
नंगी तलवारों की छाया
में सुंदरता विहरण करती,
और किसी ने पाई हो पर कभी पाई नहीं है भय ने।
आज चंचला की बाहों में उलझा दी हैं बाहें मैंने।
बिजली से अनुराग जिसे हो
उठकर आसमान को नापे,
आग चले आलिंगन करने,
तब क्या भाप-धुएँ से काँपे,
साफ़, उजाले वाले, रक्षित
पंथ मरों के कंदर के हैं;
जिन पर ख़तरे-जान नहीं था, छोड़ कभी दीं राहें मैंने।
आज चंचला की बाहों में उलझा दी हैं बाहें मैंने।
बूँद पड़ी वर्षा की चूहे
और छछूँदर बिल में भागे,
देख नहीं पाते वे कुछ भी
जड़-पामर प्राणों के आगे;
घन से होर लगाने को तन-
मोह छोड़ निर्मम अंबर में
वज्र-प्रहार सहन करते हैं वैनतेय के पैने डैने।
आज चंचला की बाहों में उलझा दी हैं बाहें मैंने।
साथ भी रखता तुम्हें तो, राजहंसिनि
साथ भी रखता तुम्हें तो, राजहंसिनि,
क्या हमारे प्यार का परिणाम होता!
जब कहा है कि मैंने यह शुक्र जो
वेला विदा की पास आई,
कुछ तअज्जुब, कुछ उदासी, कुछ शरारत
से भरी तुम मुसकराई,
वक्त के डैने चले, तुम हो वहाँ, मैं
हूँ यहाँ, पर देखता हूँ,
साथ भी रखता तुम्हें तो, राजहंसिनि,
क्या हमारे प्यार का निर्माण होता!
स्वप्न का वातावरण हर चीज़ के
चारों तरु़ मानव बनाता,
लाख कविता से, कला से पुष्ट करता,
अंत में वह टूट जाता,
सत्य की हर शक्ल खुलकर आँख के
अंदर निराशा झोंकती है,
और वह धुलती नहीं है ज्ञान-जल से,
दर्शनों से, मरमिटे इंसान धोता।
साथ भी रखता तुम्हें तो, राजहंसिनि,
क्या हमारे प्यार का परिणाम होता!
शीर्ष आसान से रुधीर की चाल रोकी,
पर समय की गति न थमती।
औ’ ख़िज़ाबोरंग-रोग़न पर जवानी
है न ज्यादा दिन बिलमती,
सिद्ध यह करते हुए हुए अगिनती
द्वार खोलो और देखो,
और इस दयनीय-मुख के काफ़ले में
जो न होता सुबह को, वह शाम होता।
साथ भी रखता तुम्हें तो, राजहंसिनि,
क्या हमारे प्यार का परिणाम होता!
एक दिन है, जब तुम्हारे कुंतलों से
नागिनें लहरा रही हैं,
और मेरे तनतनाई बीन से ध्वनि-
राग की धारा बही है,
और तुम जो बोलती हो, बोलता मैं,
गीत उसपर शीश धुनता,
और इस संगीत-प्रीति समुद्र-जल में
काल जैसा छिप गया है मार गोता।
साथ भी रखता तुम्हें तो, राजहंसिनि,
क्या हमारे प्यार का परिणाम होता!
और यह तस्वीर कैसी,नागिने सब
केंचुलें का रूप धरतीं,
औ’ हमें जब घेरता है मौन उसको
सिर्फ खाँसी भंग करती,
औ’ घरेलू कर्ण-कटु झगड़े-बखेड़ों
को पड़ोसी सुन रहे हैं,
और बेटों ने नहीं है खर्च भेजा,
और हमको मुँह चिढ़ाता ढभ्ठ पोता।
साथ भी रखता तुम्हें तो, राजहंसिनि,
क्या हमारे प्यार का परिणाम होता!
बौरे आमों पर बौराए भौंर न आए, कैसे समझूँ मधुऋतु आई
बौरे आमों पर बौराए भौंर न आए, कैसे समझूँ मधुऋतु आई।
माना अब आकाश खुला-सा और धुला-सा
फैला-फैला नीला-नीला,
बर्फ़ जली-सी, पीली-पीली दूब हरी फिर,
जिपर खिलता फूल फबीला
तरु की निवारण डालों पर मूँगा, पन्ना
औ’ दखिनहटे का झकझोरा,
बौरे आमों पर बौराए भौंर न आए, कैसे समझूँ मधुऋतु आई।
माना, गाना गानेवाली चिड़ियाँ आईं,
सुन पड़ती कोकिल की बोली,
चली गई थी गर्म प्रदेशों में कुछ दिन को
जो, लौटी हंसों की टोली,
सजी-बजी बारात खड़ी है रंग-बिरंगी,
किंतु न दुल्हे के सिर जब तक
मंजरियों का मौर-मुकुट कोई पहनाए, कैसे समझूँ मधुऋतु आई।
बौरे आमों पर बौराए भौंर न आए, कैसे समझूँ मधुऋतु आई।
डार-पात सब पीत पुष्पमय कर लेता
अमलतास को कौन छिपाए,
सेमल और पलाशों ने सिंदूर-पताके
नहीं गगन में क्यों फहराए?
छोड़ नगर की सँकड़ी गलियाँ, घर-दर, बाहर
आया, पर फूली सरसों से
मीलों लंबे खेत नहीं दिखते पयराए, कैसे समझूँ मधुऋतु आई।
बौरे आमों पर बौराए भौंर न आए, कैसे समझूँ मधुऋतु आई।
प्रात: से संध्या तक पशुवत् मेहनत करके
चूर-चूर हो जाने पर भी,
एक बार भी तीन सैकड़े पैंसठ दिन में
पूरा पेट न खाने पर भी
मौसम की मदमस्त हवा पी जो हो उठते
हैं मतवाले, पागल, उनके
फाग-राग ने रातों रक्खा नहीं जगाए, कैसे समझूँ मधुऋतु आई।
बौरे आमों पर बौराए भौंर न आए, कैसे समझूँ मधुऋतु आई।
अब दिन बदले, घड़ियाँ बदलीं
अब दिन बदले, घड़ियाँ बदलीं,
साजन आए, सावन आया।
धरती की जलती साँसों ने
मेरी साँसों में ताप भरा,
सरसी की छाती दरकी तो
कर घाव मुझपर गहरा,
है नियति-प्रकृति की ऋतुयों में
संबंध कहीं कुछ अनजाना,
अब दिन बदले, घड़ियाँ बदलीं,
साजन आए, सावन आया।
तूफान उठा जब अंबर में
अंतर किसने झकझोर दिया,
मन के सौ बंद कपाटों को
क्षण भर के अंदर खोल दिया,
झोंका जब आया मधुवन में
प्रिय का संदेश लिए आया-
ऐसी निकली हो धूप नहीं
जो साथ नहीं लाई छाया।
अब दिन बदले, घड़ियाँ बदलीं,
साजन आए, सावन आया।
घन के आँगन से बिजली ने
जब नयनों से संकेत किया,
मेरी बे-होश-हवास पड़ी
आशा ने फिर से चेत किया,
मुरझाती लतिका पर कोई
जैसे पानी के छींटे दे,
औ’ फिर जीवन की साँसें ले
उसकी म्रियामाण-जली काया।
अब दिन बदले, घड़ियाँ बदलीं,
साजन आए, सावन आया।
रोमांच हुआ अवनी का
रोमांचित मेरे अंग हुए,
जैसे जादू के लकड़ी से
कोई दोनों को संग छुए,
सिंचित-सा कंठ पपिहे का
कोयल की बोली भीगी-सी,
रस-डूबा, स्वर में उतराया
यह गीत नया मैंने गाया।
अब दिन बदले, घड़ियाँ बदलीं,
साजन आए, सावन आया।
मैं सुख पर, सुखमा पर रीझा, इसकी मुझको लाज नहीं है
मैं सुख पर, सुखमा पर रीझा, इसकी मुझको लाज नहीं है।
जिसने अलियों के अधरों में
रस रक्खा पहले शरमाए,
जिसने अलियों के पंखों में
प्यास भरी वह सिर लटकाए,
आँख करे वह नीची जिसने
यौवन का उन्माद उभारा,
मैं सुख पर, सुखमा पर रीझा, इसकी मुझको लाज नहीं है।
मन में सावन-भादो बरसे,
जीभ करे, पर, पानी-पानी!
चलती फिरती है दुनिया में
बहुधा ऐसी बेईमानी,
पूर्वज मेरे, किंतु, हृदय की
सच्चाई पर मिटने आए,
मधुवन भोगे, मरु उपदेशे मेरे वंश रिवाज नहीं है।
मैं सुख पर, सुखमा पर रीझा, इसकी मुझको लाज नहीं है।
चला सफर पर जब तब मैंने
पथ पूछा अपने अनुभव से
अपनी एक भूल से सीखा
ज्यादा, औरों के सच सौ से
मैं बोला जो मेरी नाड़ी
में डोला जो रग में घूमा,
मेरी वाणी आज किताबी नक्शों की मोहताज नही है।
मैं सुख पर, सुखमा पर रीझा, इसकी मुझको लाज नहीं है।
अधरामृत की उस तह तक मैं
पहुँचा विष को भी मैं चख आया,
और गया सुख को पिछुआता
पीर जहाँ वह बनकर छाया,
मृत्यु गोद में जीवन अपनी
अंतिम सीमा पर लेटा था,
राग जहाँ पर तीव्र अधिकतम है उसमें आवाज़ नहीं है।
मैं सुख पर, सुखमा पर रीझा, इसकी मुझको लाज नहीं है।
माना मैंने मिट्टी, कंकड़, पत्थर, पूजा
माना मैंने मिट्टी, कंकड़, पत्थर, पूजा,
अपनी पूजा करने से तो मैं बाज़ रहा।
दर्पन से अपनी चापलूसियाँ सुनने की
सबको होती है, मुझको भी कमज़ोरी थी,
लेकिन तब मेरी कच्ची गदहपचीसी थी,
तन कोरा था, मन भोला था, मति भोरी थी,
है धन्यवाद सौ बार विधाता जिसने
दुर्बलता मेरे साथ लगा दी एक और;
माना मैंने मिट्टी, कंकड़, पत्थर, पूजा,
अपनी पूजा करने से तो मैं बाज़ रहा।
धरती से लेकर जिसपर तिनके की चादर,
अंबर तक, जिसके मस्तक पर मणि-पाँती है,
जो है, सब में मेरी दयमारी आँखों को,
जय करने वाली कुछ बातें मिल जाती हैं,
खुलकर, छिपकर जो कुछ मेरे आगे पड़ता
मेरे मन का कुछ हिस्सा लेकर जाता है,
इस लाचारी से लुटने और उजड़नेवाली
हस्ती पर मुझको लम्हा नाज़ रहा।
माना मैंने मिट्टी, कंकड़, पत्थर, पूजा,
अपनी पूजा करने से तो मैं बाज़ रहा।
यह पूजा की भावना प्रबल है मानव में,
इसका कोई आधा बनाना पड़ता है,
जो मूर्ति और की नहीं बिठाता है अंदर
उसको खुद अपना बुत बिठलाना पड़ता है;
यह सत्य, कल्पतरु के अभाव में रेंड़ सींच
मैंने अपने मन का उद्गगार निकाला है;
लेकिन एकाकी से एकाकी घड़ियों में
मैं कभी नहीं बनकर अपना मोहताज रहा।
माना मैंने मिट्टी, कंकड़, पत्थर, पूजा,
अपनी पूजा करने से तो मैं बाज़ रहा।
अब इतने ईंटें, कंकड़, पत्थर बैठ चुके,
वह दर्पण टूटा, फूटा, चकनाचूर हुआ,
लेकिन मुझको इसका कोई पछताव नहीं
जो उसके प्रति संसार सदा ही क्रूर हुआ;
कुछ चीज़ें खंडित होकर साबित होती हैं;
जो चीज़ें मुझको साबित साति करती है,
उनके ही गुण तो गाता मेरा कंठ रहा,
उनकी ही धून पर बजता मेरा साज़ रहा।
माना मैंने मिट्टी, कंकड़, पत्थर, पूजा,
अपनी पूजा करने से तो मैं बाज़ रहा।
दे मन का उपहार सभी को, ले चल मन का भार अकेले
दे मन का उपहार सभी को, ले चल मन का भार अकेले।
लहराया है तो दिल तो ललका
जा मधुबन में, मैदानों में,
बहुत बड़े वरदान छिपे हैं
तान, तरानों, मुसकानों में;
घबराया है जी तो मुड़ जा
सूने मरु, नीरव घाटी में,
दे मन का उपहार सभी को, ले चल मन का भार अकेले।
किसके सिर का बोझा कम है
जो औरों का बोझ बँटाए,
होंठों की सतही शब्दों से
दो तिनके भी कब हट पाए;
लाख जीभ में एक हृदय की
गहराई को छू पाती है;
कटती है हर एक मुसीबत-एक तरह बस-झेले झेले।
दे मन का उपहार सभी को, ले चल मन का भार अकेले।
छुटकारा तुमने पाया है,
पूछूँ तो क्या क़ीमत देकर,
क़र्ज़ चुका आए तुम अपना,
लेकिन मुझको ज्ञात कि लेकर
दया किसी की, कृपा किसी की,
भीख किसी की, दान किसी का;
तुमसे सौ दर्जन अच्छे जो अपने बंधन से खेले।
दे मन का उपहार सभी को, ले चल मन का भार अकेले।
ज़ंजीरों की झनकारों से
हैं वीणा के तार लजाते,
जीवन के गंभीर स्वरों को
केवल भारी हैं सुन पाने,
गान उन्हीं का मान जिन्हें है
मानव के दुख-दर्द-दहन का,
गीत वहीं बाँटेगा सबको, जो दुनिया की पीर सकेले।
दे मन का उपहार सभी को, ले चल मन का भार अकेले।