आकुल अंतर -हरिवंशराय बच्चन -Hindi Poetry-कविता-Hindi Poem | Kavita By Harivansh Rai Bachchan Part 7

आकुल अंतर -हरिवंशराय बच्चन -Hindi Poetry-कविता-Hindi Poem | Kavita By Harivansh Rai Bachchan Part 7

उठ समय से मोरचा ले

उठ समय से मोरचा ले।

जिस धरा से यत्न युग-युग
कर उठे पूर्वज मनुज के,
हो मनुज संतान तू उस-पर पड़ा है शर्म खाले।
उठ समय से मोरचा ले।

देखता कोई नहीं है
निर्बलों की यह निशानी,
लोचनों के बीच आँसू औ’ पगों के बीच छाले!
उठ समय से मोरचा ले।

धूलि धूसर वस्त्र मानव–
देह पर फबते नहीं हैं,
देह के ही रक्त से तू देह के कपड़े रँगाले।
उठ समय से मोरचा ले।

तू कैसे रचना करता है

(१)
तू कैसे रचना करता है?
तू कैसी रचना करता है?

अपने आँसू की बूँदों में–
अविरल आँसू की बूँदों में,
विह्वल आँसू की बूँदों में,
कोमल आँसू की बूँदों में,
निर्बल आँसू की बूँदों में–

लेखनी डुबाकर बारबार,
लिख छोटे-छोटे गीतों को
गाता है अपना गला फाड़,
करता इनका जग में प्रचार।

(२)
इनको ले बैठ अकेले में
तुझ-से बहुतेरे दुखी-दीन
खुद पढ़ते हैं, खुद सुनते हैं,
तुझसे हमदर्दी दिखलाते,
अपनी पीड़ा को दुलराते,
कहते हैं, ‘जीवन है मलीन,
यदि बचने का कोई उपाय
तो वह केवल है एक मरण।’

(३)
तू ऐसे अपनी रचना कर,
तू ऐसी अपनी रचना कर,

जग के आँसू के सागर में–
जिसमें विक्षोभ छलकता है,
जिसमें विद्रोह बलकता है,
जय का विश्वास ललकता है,
नवयुग का प्रात झलकता है–

तू अपना पूरा कलम डुबा,
लिख जीवन की ऐसी कविता,
गा जीवन का ऐसा गायन,
गाए संग में जग का कण-कण।

(४)
जो इसको जिह्वा पर लाए,
वह दुखिया जग का बल पाए,
दुख का विधान रचनेवाला,
चाहे हो विश्व-नियंता ही,
इसको सुनकर थर्रा जाए।

घोषणा करे इसका गायक,
‘जीवन है जीने के लायक,
जीवन कुछ करने के लायक,
जीवन है लड़ने के लायक,
जीवन है मरने के लायक,
जीवन के हित बलि कर जीवन।’

पंगु पर्वत पर चढ़ोगे

पंगु पर्वत पर चढ़ोगे!

चोटियाँ इस गिरि गहन की
बात करतीं हैं गगन से,
और तुम सम भूमि पर चलना अगर चाहो गिरोगे।
पंगु पर्वत पर चढ़ोगे!

तुम किसी की भी कृपा का
बल न मानोगे सफल हो?
औ’ विफल हो दोष अपना सिर न औरों के मढ़ोगे?
पंगु पर्वत पर चढ़ोगे!

यह इरादा नप अगर सकता
शिखर से उच्च होता,
गिरि झुकेगा ही इसे ले जबकि तुम आगे बढ़ोगे।
पंगु पर्वत पर चढ़ोगे।

गिरि शिखर, गिरि शिखर, गिरि शिखर

गिरि शिखर, गिरि शिखर, गिरि शिखर!

जबकि ध्येय बन चुका,
जबकि उठ चरण चुका,
स्वर्ग भी समीप देख–मत ठहर, मत ठहर, मत ठहर!
गिरि शिखर, गिरि शिखर, गिरि शिखर!

संग छोड़ सब चले,
एक तू रहा भले,
किंतु शून्य पंथ देख–मत सिहर, मत सिहर, मत सिहर!
गिरि शिखर, गिरि शिखर, गिरि शिखर!

पूर्ण हुआ एक प्रण,
तन मगन, मन मगन,
कुछ न मिले छोड़कर–पत्थर, पत्थर, पत्थर!
गिरि शिखर, गिरि शिखर, गिरि शिखर!

 यह काम कठिन तेरा ही था

यह काम कठिन तेरा ही था, यह काम कठिन तेरा ही है।

तूने मदिरा की धारा पर
स्वप्नों की नाव चलाई है,
तूने मस्ती की लहरों पर
अपनी वाणी लहराई है।
यह काम कठिन तेरा ही था, यह काम कठिन तेरा ही है।

तूने आँसू की धारा में
नयनों की नाव डुबाई है,
तूने करुणा की सरिता की
डुबकी ले थाह लगाई है।
यह काम कठिन तेरा ही था, यह काम कठिन तेरा ही है।

अब स्वेद-रक्त का सागर है,
उस पार तुझे ही जाना है,
उस पार बसी है जो दुनिया
उसका संदेश सुनाना है।
अब देख न ड़र, अब देर न कर,
तूने क्या हिम्मत पाई है!
यह काम कठिन तेरा ही था, यह काम कठिन तेरा ही है।

बजा तू वीणा और प्रकार

बजा तू वीणा और प्रकार।

कल तक तेरा स्वर एकाकी,
मौन पड़ी थी दुनिया बाकी,
तेरे अंतर की प्रतिध्वनि थी तारों की झनकार।
बजा तू वीणा और प्रकार।

आज दबा जाता स्वर तेरा,
आज कँपा जाता कर तेरा,
बढ़ता चला आ रहा है उठ जग का हाहाकार।
बजा तू वीणा और प्रकार।

क्या कर की वीणा धर देगा,
या नूतन स्वर से भर देगा,
जिसमें होगा एक राग तेरा, जग का चीत्कार?
बजा तू वीणा और प्रकार।

यह एक रश्मि

(१)
यह एक रश्मि–
पर छिपा हुआ है इसमें ही
ऊषा बाला का अरुण रूप,
दिन की सारी आभा अनूप,
जिसकी छाया में सजता है
जग राग रंग का नवल साज।
यह एक रश्मि!

(२)
यह एक बिंदु–
पर छिपा हुआ है इसमें ही
जल-श्यामल मेघों का वितान,
विद्युत-बाला का वज्र ज्ञान,
जिसको सुनकर फैलाता है
जग पर पावस निज सरस राज।
यह एक बिंदु!

(३)
वह एक गीत–
जिसमें जीवन का नवल वेश,
जिसमें जीवन का नव सँदेश,
जिसको सुनकर जग वर्तमान
कर सकता नवयुग में प्रवेश,
किस कवि के उर में छिपा आज?
वह एक गीत!

जब-जब मेरी जिह्वा डोले

जब-जब मेरी जिह्वा डोले।

स्वागत जिनका हुआ समर में,
वक्षस्थल पर, सिर पर, कर में,
युग-युग से जो भरे नहीं हैं मन के घावों को खोले।
जब-जब मेरी जिह्वा डोले।

यदि न बन सके उनपर मरहम,
मेरी रसना दे कम से कम
इतना तो रस जिसमें मानव अपने इन घावों को धोले।
जब-जब मेरी जिह्वा डोले।

यदि न सके दे ऐसे गायन,
बहले जिनको गा मानव मन;
शब्द करे ऐसे उच्चारण,
जिनके अंदर से इस जग के शापित मानव का स्वर बोले।
जब-जब मेरी जिह्वा डोले।

तू एकाकी तो गुनहगार

तू एकाकी तो गुनहगार।

अपने पर होकर दयावान
तू करता अपने अश्रुपान,
जब खड़ा माँगता दग्ध विश्व तेरे नयनों की सजल धार।
तू एकाकी तो गुनहगार।

अपने अंतस्तल की कराह
पर तू करता है त्राहि-त्राहि,
जब ध्वनित धरणि पर, अम्बर में चिर-विकल विश्व का चीत्कार।
तू एकाकी तो गुनहगार।

तू अपने में ही हुआ लीन,
बस इसीलिए तू दृष्टिहीन,
इससे ही एकाकी-मलीन,
इससे ही जीवन-ज्योति-क्षीण;
अपने से बाहर निकल देख है खड़ा विश्व बाहें पसार।
तू एकाकी तो गुनहगार।

 गाता विश्व व्याकुल राग

गाता विश्व व्याकुल राग।

है स्वरों का मेल छूटा,
नाद उखड़ा, ताल टूटा,
लो, रुदन का कंठ फूटा,
सुप्त युग-युग वेदना सहसा पड़ी है जाग।
गाता विश्व व्याकुल राग।

वीण के निज तार कसकर
और अपना साधकर स्वर
गान के हित आज तत्पर
तू हुआ था, किंतु अपना ध्येय गायक त्याग।
गाता विश्व व्याकुल राग।

उँगलियां तेरी रुकेंगी,
बज नहीं वीणा सकेगी,
राग निकलेगा न मुख से,
यत्न कर साँसें थकेंगी;
करुण क्रंदन में जगत के आज ले निज भाग।
गाता विश्व व्याकुल राग।