आकुल अंतर -हरिवंशराय बच्चन -Hindi Poetry-कविता-Hindi Poem | Kavita By Harivansh Rai Bachchan Part 5

आकुल अंतर -हरिवंशराय बच्चन -Hindi Poetry-कविता-Hindi Poem | Kavita By Harivansh Rai Bachchan Part 5

 

आज पागल हो गई है रात

आज पागल हो गई है रात।

हँस पड़ी विद्युच्छटा में,
रो पड़ी रिमझिम घटा में,
अभी भरती आह, करती अभी वज्रापात।
आज पागल हो गई है रात।

एक दिन मैं भी हँसा था,
अश्रु-धारा में फँसा था,
आह उर में थी भरी, था क्रोध-कंपित गात।
आज पागल हो गई है रात।

योग्य हँसने के यहाँ क्या,
योग्य रोने के यहाँ क्या,
–क्रुद्ध होने के, यहाँ क्या,
–बुद्धि खोने के, यहाँ क्या,
व्यर्थ दोनों हैं मुझे हँस-रो हुआ यह ज्ञात।
आज पागल हो गई है रात।

दोनों चित्र सामने मेरे

दोनों चित्र सामने मेरे।

पहला

सिर पर बाल घने, घुंघराले,
काले, कड़े, बड़े, बिखरे-से,
मस्ती, आजादी, बेफिकरी,
बेखबरी के हैं संदेसे।

माथा उठा हुआ ऊपर को,
भौंहों में कुछ टेढ़ापन है,
दुनिया को है एक चुनौती,
कभी नहीं झुकने का प्राण है।

नयनों में छाया-प्रकाश की
आँख-मिचौनी छिड़ी परस्पर,
बेचैनी में, बेसब्री में
लुके-छिपे हैं सपने सुंदर

दूसरा

सिर पर बाल कढ़े कंघी से
तरतीबी से, चिकने काले,
जग की रुढ़ि-रीति ने जैसे
मेरे ऊपर फंदें डाले।

भौंहें झुकी हुईं नीचे को,
माथे के ऊपर है रेखा,
अंकित किया जगत ने जैसे
मुझ पर अपनी जय का लेखा।

नयनों के दो द्वार खुले हैं,
समय दे गया ऐसी दीक्षा,
स्वागत सबके लिए यहाँ पर,
नहीं किसी के लिए प्रतीक्षा।

चुपके से चाँद निकलता है

चुपके से चाँद निकलता है।

तरु-माला होती स्वच्छ प्रथम,
फिर आभा बढ़ती है थम-थम,
फिर सोने का चंदा नीचे से उठ ऊपर को चलता है।
चुपके से चाँद निकलता है।

सोना चाँदी हो जाता है,
जस्ता बनकर खो जाता है,
पल-पहले नभ के राजा का अब पता कहाँ पर चलता है।
चुपके से चंदा ढ़लता है।

अरुणाभा, किरणों की माला,
रवि-रथ बारह घोड़ोंवाला,
बादल-बिजली औ’ इन्द्रधनुष,
तारक-दल, सुन्दर शशिबाला,
कुछ काल सभी से मन बहला, आकाश सभी को छलता है।
वश नहीं किसी का चलता है।

चाँद-सितारो, मिलकर गाओ

चाँद-सितारो, मिलकर गाओ!

आज अधर से अधर मिले हैं,
आज बाँह से बाँह मिली,
आज हृदय से हृदय मिले हैं,
मन से मन की चाह मिली;
चाँद-सितारो, मिलकर गाओ!

चाँद-सितारे, मिलकर बोले,
कितनी बार गगन के नीचे
प्रणय-मिलन व्यापार हुआ है,
कितनी बार धरा पर प्रेयसि-
प्रियतम का अभिसार हुआ है!
चाँद-सितारे, मिलकर बोले।

चाँद-सितारों, मिलकर रोओ!
आज अधर से अधर अलग है,
आज बाँह से बाँह अलग
आज हृदय से हृदय अलग है,
मन से मन की चाह अलग;
चाँद-सितारो, मिलकर रोओ!

चाँद-सितारे, मिलकर बोले,
कितनी बार गगन के नीचे
अटल प्रणय का बंधन टूटे,
कितनी बार धरा के ऊपर
प्रेयसि-प्रियतम के प्रण टूटे?
चाँद-सितारे, मिलकर बोले।

मैं था, मेरी मधुबाला थी

(१)

मैं था, मेरी मधुबाला थी,
अधरों में थी प्यास भरी,
नयनों में थे स्वप्न सुनहले,
कानों में थी स्वर लहरी;
सहसा एक सितारा बोला, ‘यह न रहेगा बहुत दिनों तक!’

(२)

मैं था औ मेरी छाया थी,
अधरों पर था खारा पानी,
नयनों पर था तम का पर्दा,
कानों में थी कथा पुरानी;
सहसा एक सितारा बोला, ‘यह न रहेगा बहुत दिनों तक!’

(३)

अनासक्त था मैं सुख-दुख से,
अधरों के कटु-कधु समान था,
नयनों को तम-ज्योति एक-सी,
कानों को सम रुदन-गान था,
सहसा एक सितारा बोला, ‘यह न रहेगा बहुत दिनों तक!’

इतने मत उन्मत्त बनो

(१)

इतने मत उन्मत्त बनो।

जीवन मधुशाला से मधु पी,
बनकर तन-मन-मतवाला,
गीत सुनाने लगा झूमकर,
चूम-चूमकर मैं प्याला–
शीश हिलाकर दुनिया बोली,
पृथ्वी पर हो चुका बहुत यह,
इतने मत उन्मत्त बनो।

(२)

इतने मत संतप्त बनो।

जीवन मरघट पर अपने सब
अरमानों की कर होली,
चला राह में रोदन करता
चिता राख से भर झोली–
शीश हिलाकर दुनिया बोली,
पृथ्वी पर हो चुका बहुत यह,
इतने मत संतप्त बनो।

(३)

इतने मत उत्तप्त बनो।

मेरे प्रति अन्याय हुआ है
ज्ञात हुआ मुझको जिस क्षण,
करने लगा अग्नि-आनन हो
गुरु गर्जन गुरुतर तर्जन–
शीश हिलाकर दुनिया बोली,
पृथ्वी पर हो चुका बहुत यह,
इतने मत उत्तप्त बनो।

मेरा जीवन सबका साखी

मेरा जीवन सबका साखी।

(१)
कितनी बार दिवस बीता है,
कितनी बार निशा बीती है,
कितनी बार तिमिर जीता है,
कितनी बार ज्योति जीती है!
मेरा जीवन सबका साखी।

(२)
कितनी बार सृष्टि जागी है,
कितनी बार प्रलय सोया है,
कितनी बार हँसा है जीवन,
कितनी बार विवश रोया है!
मेरा जीवन सबका साखी।

(३)
कितनी बार विश्व-घट मधु से
पूरित होकर तिक्त हुआ है,
कितनी बार भरा भावों से
कवि का मानस रिक्त हुआ है!
मेरा जीवन सबका साखी।

(४)
कितनी बार विश्व कटुता का
हुआ मधुरता में परिवर्तन,
कितनी बार मौन की गोदी
में सोया है कवि का गायन।
मेरा जीवन सबका साखी।

तब तक समझूँ कैसे प्यार

(१)
तब तक समझूँ कैसे प्यार,

अधरों से जब तक न कराए
प्यारी उस मधुरस का पान,
जिसको पीकर मिटे सदा को
अपनी कटु संज्ञा का ज्ञान,
मिटे साथ में कटु संसार,
तब तक समझूँ कैसे प्यार

(२)
तब तक समझूँ कैसे प्यार।

बाँहों में जब तक न सुलाए
प्यारी, अंतरहित हो रात,
चाँद गया कब सूरज आया–
इनके जड़ क्रम से अज्ञात;
सेज चिता की साज-सँवार,
तब तक समझूँ कैसे प्यार।

(३)
तब तक समझूँ कैसे प्यार।

प्राणों में जब तक न मिलाए
प्यारी प्राणों की झंकार,
खंड़-खंड़ हो तन की वीणा
स्वर उठ जाएँ तजकर तार,
स्वर-स्वर मिल हों एकाकार,
तब तक समझूँ कैसे प्यार।