असीम प्रणय की तृष्णा- भग्नदूत अज्ञेय- सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन “अज्ञेय”-Hindi Poetry-हिंदी कविता -Hindi Poem | Hindi Kavita Sachchidananda Hirananda Vatsyayan Agyeya,
#1.
आशाहीना रजनी के अन्तस् की चाहें,
हिमकर-विरह-जनित वे भीषण आहें
जल-जल कर जब बुझ जाती हैं,
जब दिनकर की ज्योत्स्ना से सहसा आलोकित
अभिसारिका ऊषा के मुख पर पुलकित
व्रीडा की लाली आती है,
भर देती हैं मेरा अन्तर्ï जाने क्या-क्या इच्छाएँ-
क्या अस्फुट, अव्यक्त, अनादि, असीम प्रणय की तृष्णाएँ!
भूल मुझे जाती हैं अपने जीवन की सब कृतियाँ:
कविता, कला, विभा, प्रतिभा-रह जातीं फीकी स्मृतियाँ।
अब तक जो कुछ कर पाया हूँ, तृणवत् उड़ जाता है,
लघुता की संज्ञा का सागर उमड़-उमड़ आता है।
तुम, केवल तुम-दिव्य दीप्ति-से, भर जाते हो शिरा-शिरा में,
तुम ही तन में, तुम ही मन में, व्याप्त हुए ज्यों दामिनी घन में,
तुम, ज्यों धमनी में जीवन-रस, तुम, ज्यों किरणों में आलोक!
#.2.
क्या दूँ, देव! तुम्हारी इस विपुला विभुता को मैं उपहार?
मैं-जो क्षुद्रों में भी क्षुद्र, तुम्हें-जो प्रभुता के आगार!
अपनी कविता? भव की छोटी रचनाएँ जिस का आधार?
कैसे उस की गरिमा में भर दूँ गहराता पारावार?
अपने निर्मित चित्र? वही जो असफलता के शव पर स्तूप?
तेरे कल्पित छाया-अभिनय की छाया के भी प्रतिरूप!
अपनी जर्जर वीणा के उलझे-से तारों का संगीत?
जिसमें प्रतिदिन क्षण-भंगुर लय बुद्बुद होते रहें प्रमीत!
#3.
विश्वदेव! यदि एक बार,
पा कर तेरी दया अपार, हो उन्मत्त, भुला संसार-
मैं ही विकलित, कम्पित हो कर-नश्वरता की संज्ञा खो कर,
हँस कर, गा कर, चुप हो, रो कर-
क्षण-भर झंकृत हो-विलीन हो-होता तुम से एकाकार!
बस एक बार!
दिल्ली जेल, मई, 1932