अश्क आबाद की इक शाम-शामे-श्हरे-यारां -फ़ैज़ अहमद फ़ैज़-Hindi Poetry-कविता-Hindi Poem | Kavita Faiz Ahmed Faiz
जब सूरज ने जाते-जाते
अश्क आबाद के नीले उफ़क से
अपने सुनहरी जाम
में ढाली
सुरख़ी-ए-अवले शाम
और ये जाम
तुम्हारे सामने रखकर
तुमसे किया कलाम
कहा : परनाम !
उठो
और अपने तन की सेज से उठकर
इक शीरीं पैग़ाम
सबत करो इस शाम
किसी के नाम
किनारे जाम
शायद तुम ये मान गईं और तुमने
अपने लबे-गुलफ़ाम
कीये इनआम
किसी के नाम
किनारे जाम
या शायद
तुम अपने तन की सेज पे सजकर
थीं यूं महवे-आराम
कि रस्ता तकते-तकते
बुझ गई शमा-ए-जाम
अश्क आबाद के नीले उफ़क पर
ग़ारत हो गई शाम