अर्चना -सूर्यकांत त्रिपाठी निराला -Hindi Poetry-कविता-Hindi Poem | Suryakant Tripathi Nirala Part 6

अर्चना -सूर्यकांत त्रिपाठी निराला -Hindi Poetry-कविता-Hindi Poem | Suryakant Tripathi Nirala Part 6

घन तम से आवृत धरणी है

घन तम से आवृत धरणी है;
तुमुल तरंगों की तरणी है।

मन्दिर में बन्दी हैं चारण,
चिघर रहे हैं वन में वारण,
रोता है बालक निष्कारण,
विना-सरण-सारण भरणी है।

शत संहत आवर्त-विवर्तों
जल पछाड़ खाता है पर्तों,
उठते हैं पहाड़, फिर गर्तों
धसते हैं, मारण-रजनी है।

जीर्ण-शीर्ण होकर जीती है,
जीवन में रहकर रीती है,
मन की पावनता पीती है,
ऐसी यह अकाम सरणी है।

नव जीवन की बीन बजाई

नव जीवन की बीन बजाई।
प्रात रागिनी क्षीण बजाई।

घर-घर नये-नये मुख, नव कर,
भरकर नये-नये गुंजित स्वर,
नर को किया नरोत्तम का वर,
मीड़ अनीड़ नवीन बजाई।

वातायन-वातायन के मुख
खोली कला विलोकन-उत्सुक,
लोक-लोक आलोक, दूर दुख,
आगम-रीति प्रवीण बजाई।

पाप तुम्हारे पांव पड़ा था

पाप तुम्हारे पांव पड़ा था,
हाथ जोड़कर ठांव खड़ा था।

विगत युगों का जंग लगा था,
पहिया चलता न था, रुका था,
रगड़ कड़ी की थी, सँवरा था,
पथ चलने का काम बड़ा था।

जड़ता की जड़तक मारी थी,
ऐसी जगने की बारी थी,
मंजिल भी थककर हारी थी,
ऐसे अपने नाँव चढ़ा था।

सभी उहार उतार दिये थे,
फिरसे पट्टे श्वेत सिये थे,
तीन-तीन के एक किये थे,
किसी एक अपवर्ग मढ़ा था।

क्यों मुझको तुम भूल गये हो

क्यों मुझको तुम भूल गये हो?
काट डाल क्या, मूल गये हो।

रवि की तीव्र किरण से पीकर
जलता था जब विश्व प्रखरतर,
तुम मेरे छाया के तरु पर
डाल पवन से धूल गये हो।

विफल हुई साधना देह की,
असफल आराधना स्नेह की,
बिना दीप की रात गेह की,
उल्टे फलकर फूल गये हो।

नहीं ज्ञात, उत्पात हुआ क्यों,
ऐसा निष्ठुर घात हुआ क्यों,
विमल-गात अस्नात हुआ क्यों,
बढ़ने को प्रतिकूल गये हो?

 तुमसे जो मिले नयन

तुमसे जो मिले नयन,
दूर हुए दुरित-शयन।

खिले अंग-अंग अमल
सर के पातः-शतदल
पावन-पवनोत्कल-पल,
अलक-मन्द-गन्ध-वयन।

खग-कुल कल-कण्ठ-राग
फूटे नग, नगर, बाग,
अधर-विधुर छुटे दाग,
कर-कर सित-सुमन-चयन।

अखिल के न खिले हुए,
खले हिले-मिले हुए,
एक ताग सिले हुए
आये हो एक अयन।

वन-वन के झरे पात

वन-वन के झरे पात,
नग्न हुई विजन-गात।

जैसे छाया के क्षण
हंसा किसी को उपवन,
अब कर-पुट विज्ञापन,
क्षमापन, प्रपन्न प्रात।

करुणा के दान-मान
फूटे नव पत्र-गान,
उपवन-उपवन समान
नवल-स्वर्ग-रश्मि-जात।

तुमने स्वर के आलोक-ढले

तुमने स्वर के आलोक-ढले
गाये हैं गाने गले-गले।

बचकर भव की भंगुरता से
रागों के सुमनों के बासे
रंग-रेणु-गन्ध के वे भासे
मीड़ों के नीड़ों से निकले।

नश्वरता पर सस्वर छाये
जैसे पल्लव के दल आये,
वन के वसन्त के मन भाये
जैसे जन बैठे छाँह-तले।

बोले, अब अपना पथ सूझा,
भूला जीवन-प्रकरण बूझा,
प्रबल से प्रबलतर अरि जूझा,
रोके जो सहसा चक्र चले।

लिया-दिया तुमसे मेरा था

लिया-दिया तुमसे मेरा था,
दुनिया सपने का डेरा था।

अपने चक्कर से कुल कट गये,
काम की कला से हट हट गये,
छापे से तुम्हीं निपट पट गये,
उलटा जो सीधा ढेरा था।

सही आंख तुम्हीं दिखे पहले,
नहले पर तुम्हीं रहे दहले,
बहते थे जितने थे बहले,
किसी जीभ तुमको टेरा था।

तभी किनारे लगा दिया है,
जहाँ करारा गिरा दिया है,
कैसा तुमने तरा दिया है,
गहरा भवरों का फेरा था।

 गीत गाने दो मुझे तो

गीत गाने दो मुझे तो,
वेदना को रोकने को।

चोट खाकर राह चलते
होश के भी होश छूटे,
हाथ जो पाथेय थे, ठग-
ठाकुरों ने रात लूटे,
कंठ रूकता जा रहा है,
आ रहा है काल देखो।

भर गया है ज़हर से
संसार जैसे हार खाकर,
देखते हैं लोग लोगों को,
सही परिचय न पाकर,
बुझ गई है लौ पृथा की,
जल उठो फिर सींचने को।

सहज-सहज कर दो

सहज-सहज कर दो;
सकलश रस भर दो।

ठग ठगकर मन को
लूट गये धन को,
ऐसा असमंजस, धिक
जीवन-यौवन को;
निर्भय हूँ, वर दो।

जगज्जाल छाया,
माया ही माया,
सूझता नहीं है पथ
अन्धकार आया;
तिमिर-भेद शर दो।

 

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