अर्चना -सूर्यकांत त्रिपाठी निराला -Hindi Poetry-कविता-Hindi Poem | Suryakant Tripathi Nirala Part 11
श्याम-श्यामा के युगल पद
श्याम-श्यामा के युगल पद,
कोकनद मन के विनिर्मद।
हृदय के चन्दन सुखाशय,
नयन के वन्दन निरामय,
निश्शरण के निर्गमन के,
गगन-छाया-तल सदाश्रय,
उषा की लाली लगे दुख के,
जगे के योग के गद।
नन्द के आनन्द के घन,
बाधना के साध्य-साधन,
शेष के अवशेष के फल
ज्योति के सम्वलित जीवन,
प्राण के आदान के बल,
मान के मन के वशम्वद।
काम के छवि-धाम
काम के छवि-धाम,
शमन प्रशमन राम!
सिन्धुरा के सीस
सिन्दूर, जगदीश,
मानव सहित-कीश,
सीता-सती-नाम।
अरि-दल-दलन-कारि,
शंकर, समनुसारि
पद-युगल-तट-वारि
सरिता, सकल याम।
शेष के तल्प कल
शयन अवशेष-पल,
चयन-कलि-गन्ध-दल
विश्व के आराम।
हे जननि, तुम तपश्चरिता
हे जननि, तुम तपश्चरिता,
जगत की गति, सुमति भरिता।
कामना के हाथ थक कर
रह गये मुख विमुख बक कर,
निःस्व के उर विश्व के सुर
बह चली हो तमस्तरिता।
विवश होकर मिले शंकर,
कर तुम्हारे हैं विजय वर,
चरण पर मस्तक झुकाकर,
शरण हूँ, तुम मरण सरिता।
मुक्तादल जल बरसो, बादल
मुक्तादल जल बरसो, बादल,
सरिसर कलकलसरसो बादल!
शिखि के विशिख चपल नर्तन वन,
भरे कुंजद्रुम षटपद गुंजन,
कोकिल काकलि जित कल कूजन,
सावन पावन परसो, बादल!
अनियारे दृग के तारे द्वय,
गगन-धरा पर खुले असंशय,
स्वर्ग उतर आया या निर्मय,
छबि छबि से यों दरसो, बादल!
बदले क्षिति से नभ, नभ से क्षिति,
अमित रूपजल के सुख मुख मिति,
जीवन की जित-जीवन संचिति,
उत्सुख दुख-दुख हरसो, बादल!
गगन गगन है गान तुम्हारा
गगन गगन है गान तुम्हारा,
घन घन जीवनयान तुम्हारा।
नयन नयन खोले हैं यौवन,
यौवन यौवन बांधे सुनयन,
तन तन मन साधे मन मन तन,
मानव मानव मान तुम्हारा।
क्षिति को जल, जल को सित उत्पल,
उत्पल को रवि, ज्योतिर्मण्डल,
रवि को नील गगनतल पुष्कल,
विद्यमान है दान तुम्हारा।
बालों को क्रीड़ाप्रवाल हैं,
युवकों को तनु, कुसुम-माल हैं,
वृद्धों को तप, आलबाल हैं,
छुटा-मिला जप ध्यान तुम्हारा।
बीन वारण के वरण घन
बीन वारण के वरण घन,
जो बजी वर्षित तुम्हारी,
तार तनु की नाचती उतरी,
परी, अप्सरकुमारी।
लूटती रेणुओं की निधि,
देखती निज देश वारिधि,
बह चली सलिला अनवसित
ऊर्मिला, जैसे उतारी।
चतुर्दिक छन-छन, छनन-छन,
बिना नूपुर के रणन-रण,
वीचि के फिर शिखर पर,
फिर गर्त पर, फिर सुध बिसारी।
घन आये घनश्याम न आये
घन आये घनश्याम न आये।
जल बरसे आँसू दृग छाये।
पड़े हिंडोले, धड़का आया,
बढ़ी पैंग, घबराई काया,
चले गले, गहराई छाया,
पायल बजे, होश मुरझाये।
भूले छिन, मेरे न कटे दिन,
खुले कमल, मैंने तोड़े तिन,
अमलिन मुख की सभी सुहागिन,
मेरे सुख सीधे न समाये।
किरणों की परियां मुसका दीं
किरणों की परियाँ मुसका दीं।
ज्योति हरी छाया पर छा दी।
परिचय के उर गूंजे नूपुर,
थिर चितवन से चिर मिलनातुर,
विष की शत वाणी से विच्छुर,
गांस गांस की फांस हिला दीं।
प्राणों की अंजलि से उड़कर,
छा छा कर ज्योर्तिमय अम्बर,
बादल से ॠतु समय बदलकर,
बूंदो से वेदना बिछा दीं।
पादप-पादप को चेतनतर,
कर के फहराया केतनवर,
ऐसा गाया गीत अनश्वर,
कण के तन की प्यास बुझा दीं।
तुम्हारी छांह है, छल है
तुम्हारी छांह है, छल है,
तुम्हारे बाल हैं, बल है।
दृगों में ज्योति है, शय है,
हृदय में स्पन्द है, भय है।
गले में गीत है, लय है,
तुम्हारी डाल है, फल है।
उरोरुह राग है, रति है,
प्रभा है, सहज परिणति है,
सुतनुता छन्द है, यति है,
कमल है, जाल है, जल है।
माँ अपने आलोक निखारो
माँ अपने आलोक निखारो,
नर को नरक-त्रास से वारो।
विपुल दिशावधि शून्य वगर्जन,
व्याधि-शयन जर्जर मानव मन,
ज्ञान-गगन से निर्जर जीवन
करुणाकरों उतारो, तारो।
पल्लव में रस, सुरभि सुमन में,
फल में दल, कलरव उपवन में,
लाओ चारु-चयन चितवन में,
स्वर्ग धरा के कर तुम धारो।
तपन से घन, मन शयन से
तपन से घन, मन शयन से,
प्रातजीवन निशि-नयन से।
प्रमद आलस से मिला है,
किरण से जलरुह किला है,
रूप शंका से सुघरतर
अदर्शित होकर खिला है,
गन्ध जैसे पवन से, शशि
रविकरों से, जन अयन से।