अर्चना -सूर्यकांत त्रिपाठी निराला -Hindi Poetry-कविता-Hindi Poem | Suryakant Tripathi Nirala Part 10
कौन फिर तुझको बरेगा
कौन फिर तुझको बरेगा
तू न जब उस पथ मरेगा?
निखिल के शर शत्रु हनकर,
क्षत भले कर क्षत्र बनकर,
तू चला जबतक न तनकर,–
धर्म का ध्वज कर न लेगा।
देश के अवशेष के रण
शमन के प्रहरण दिया तन
तो हुआ तू शरणशारण,
विश्व तेरे यश भरेगा।
मिलेंगे जन अशंकित मन
खिलेंगे निश्शेष-चेतन,
विषद-वासों के विभूषण,
चरण के तल, तू तरेगा।
हरिण-नयन हरि ने छीने हैं
हरिण-नयन हरि ने छीने हैं।
पावन रँग रग-रग भीने हैं।
जिते न-चहती माया महती,
बनी भावना सहती-सहती,
भीतर धसी साधना बहती,
सिले छेद जो तन सीने हैं।
जाने जन जो मरे जिये थे,
फिरे सुकृत जो लिये दिये थे,
हुए हिये जो मान किये थे,
पटे सुहसन, वसन झीने हैं।
हुए पार द्वार-द्वार
हुए पार द्वार-द्वार,
कहीं मिला नहीं तार।
विश्व के समाराधन
हंसे देखकर उस क्षण,
चेतन जनगण अचेत
समझे क्या जीत हार?
कांटों से विक्षत पद,
सभी लोग अवशम्बद,
सूख गया जैसे नद
सुफलभार सुजलधार।
केवल है जन्तु-कवल
गई तन्तु नवल-धवल,
छुटा छोर का सम्बल,
टूटा उर-सुघर हार।
पथ पर बेमौत न मर
पथ पर बेमौत न मर,
श्रम कर तू विश्रम-कर।
उठा उठा करद हाथ,
दे दे तू वरद साथ,
जग के इस सजग प्रात
पात-पात किरनें भर।
बढ़ा बढ़ा कर के तन,
जगा जगा निश्चेतन,
भगा भीरु जीवन-रण
सर-सर से उभर सुघर।
चलते चलते छुटकर
द्रुम की मधुलता उतर
विधुर स्पर्श कर पथ पर
युवा-युवतियों के सर।
कनक कसौटी पर कढ़ आया
कनक कसौटी पर कढ़ आया
स्वच्छ सलिल पर कर की छाया।
मान गये जैसे सुनकर जन
मन के मान अवश्रित प्रवचन,
जो रणमद पद के उत्तोलन
मिलते ही काया से काया।
चले सुपथ सत्य को संवरकर
उचित बचा लेने को टक्कर,
तजने को जीवित अविनश्वर,
मिलती जो माया से माया।
वाद-विवाद गांठकर गहरे
बायें सदा छोड़कर बहरे
कथा व्यथा के, गांव न ठहरे,
सत होकर जो आया, पाया।
साध पुरी, फिरी धुरी
साध पुरी, फिरी धुरी।
छुटी गैल-छैल-छुरी।
अपने वश हैं सपने,
सुकर बने जो न बने,
सीधे हैं कड़े चने,
मिली एक एक कुरी।
सबकी आँखों उतरे
साख-साख से सुथरे,
सुए के हुए खुथरे
ऊपर से चली खुरी।
सजधजकर चले चले
भले-भले गले-गले
थे जो इकले-दुकले,
बातें थीं भली-बुरी।
पतित हुआ हूँ भव से तार
पतित हुआ हूँ भव से तार;
दुस्तर दव से कर उद्धार।
तू इंगित से विश्व अपरिमित
रच-रचकर करती है अवसित
किस काया से किस छायाश्रित,
मैं बस होता हूँ बलिहार।
समझ में न आया तेरा कर
भर देगा या ले लेगा हर,
सीस झुकाकर उन चरणों पर
रहता हूँ भय से इस पार।
रुक जाती है वाणी मेरी,
दिखती है नादानी मेरी,
फिर भी मति दीवानी मेरी
कहती है, तू ठेक उतार।
पतित पावनी, गंगे
पतित पावनी, गंगे!
निर्मल-जल-कल-रंगे!
कनकाचल-विमल-धुली,
शत-जनपद-प्रगद-खुली,
मदन-मद न कभी तुली
लता-वारि-भ्रू-भंगे!
सुर-नर-मुनि-असुर-प्रसर
स्तव रव-बहु गीत-विहर
जल धारा धाराधर—
मुखर, सुकर-कर-अंगे!
चरण गहे थे, मौन रहे थे
चरण गहे थे, मौन रहे थे,
विनय-वचन बहु-रचन कहे थे।
भक्ति-आंसुओं पद पखार कर,
नयन-ज्योति आरति उतार कर,
तन-मन-धन सर्वस्व वार कर,
अमर-विचाराधार बहे थे।
आस लगी है जी की जैसी,
खण्डित हुई तपस्या वैसी,
विरति सुरति में आई कैसी,
कौन मान-उपमान लहे थे।
ठोकर गली-गली की खाई,
जगती से न कभी बन आई,
रहे तुम्हारी एक सगाई,
इसी लिए कुल ताप सहे थे।
विपद-भय-निवारण करेगा वही सुन
विपद-भय-निवारण करेगा वही सुन,
उसी का ज्ञान है, ध्यान है मान-गुन।
वेग चल, वेग चल, आयु घटती हुई,
प्रमुद-पद की सुखद वायु कटती हुई;
जल्पना छोड़ दे जोड़ दे ललित धुन।
सलिल में मीन हैं मग्न, मनु अनिल में
सीखने के लिये ज्ञान है अखिल में,
विमल अनवद्य की भावना सद्य चुन।
अन्यथा सकल आराधना शून्य है,
मृत्तिका भाप है, पाप भी पूण्य है,
भेद की आग में व्यर्थ अब तो न भुन।