अभिन्न स्वस्ति में-स्मृति सत्ता भविष्यत् -विष्णु दे -Hindi Poetry-कविता-Hindi Poem | Kavita Vishnu Dey
स्वर्णचम्पा की कान्ति अंग-अंग में झलकती है,
शिरीष के मर्मर स्वरों में यही बात बताता हूँ,
प्राकृतिक मन से प्रिया को कृष्णचूड़ा के रंग में रंगाता हूँ।
नखमूलों में क्या पलाश ने अपनी पंखुरियां बिखरा दी हैं ?
ओष्ठाधरों में प्रवाल फूलों का परस लग गया है।
अभी और रंग चाहिए ? चैती में सेमलतले का अबीर चुन कर क्या होगा?
आकाशनीम के तारों भरी राह पर मेह पड़ रहा है,
कैथ के फूलों से फलों का बाग़ मतिया रहा है,
रथ के मेले की राह की आँधी से कदम्ब सिहर रहा है ।
धान की गन्ध मलता मैं शरद् की छुट्टियाँ बिता रहा हूँ,
रास के आनन्द में हरियाली और सुनील से दृष्टि आंजता हुआ,
गुलाब के काँटों में अंगुली से धरती का दुःख चखता ।
उस आनन्द में कोई स्वाद नहीं जो विषाद से तीव्र और तीक्ष्ण न हो,
तभी तो आनन्द के तले अभिन्न स्वदेश घनीभूत रहता है।
शहर की स्वस्ति और सुख में गांव के सैकड़ों विघ्नभय मिले रहते हैं;
राजधानी कबन्ध क्यों है ? सारा प्रदेश अपाहिज और बीमार है।
यह अद्भुत जीवन देखो, हमारी कई-कई पीढ़ियाँ
अपने बसने की जगह खोजती मर जाती हैं, हालांकि हम अपने ही देश में है।
मन निर्मम और निर्बोध है, हक़ है तो सिर्फ नौकरी के जल्वे का,
तनिक सा भी प्यार किये बिना सोचते हैं कि देश हमारा ही है।
गांव शहर की भीड़ में आता है तो सोचता है असहाय हाथों को
सहारा दे कर बुद्धिमन्त अंगरेजी-नवीस हिम्मत बंधायेंगे।
गाँव क्या आज भी नहीं समझ पाता कि तन-मन-प्राणों को कुचल कर
अंगरेजी घोड़ा भाग गया है, अपने पीछे हजारों सईस छोड़ कर !
गांव-देहात की यह पिकनिक बताओ कब खत्म होगी,
साम्राज्य की अस्वस्थ बस्ती में प्रकृति को कब जगह मिलेगी,
स्वदेश और स्वजाति के बीच गठबन्धन कब होगा,
गांव और शहर की अभिन्न स्वस्ति का आनन्द कब मिलेगा?
पैरों तले जब जमीन नहीं तो बेकार है सिर पर आसमान ढोना !
खान धंसती है, बांध टूटता है, इमारतें और रेल लाइनें खिसकती है-
असीम धैर्य से सब कुछ सहती है इस देश की जनता-वसुन्धरा ।
हल की फाल से चेतना को उर्वर करो,
तभी तो ज्ञान-विज्ञान में मन की फ़सल फलेगी,
तभी तो हाथ के दर्द से सचल यन्त्र तैयार होगा।
देर हो गयी है ? हो जाय । देह गम्भार है, मन दृढ़ है,
पत्ते झर चुके हैं, चार मटियाई पंखुड़ियों के बीच
प्रेम का एक वासन्ती सम्भार है।
पराये मन को गंजों गांवों में बिला दो
सच जानो प्रकृति का प्रतिशोध इसी शताब्दी में पूरा हो जायेगा,
मरे शहर में ही आम-कटहल-जामुन के रूप में अभिन्न मन छा जायेगा ॥
२५।२।५८