अनामिका -सूर्यकांत त्रिपाठी निराला -Hindi Poetry-कविता-Hindi Poem | Suryakant Tripathi Nirala Part 4

अनामिका -सूर्यकांत त्रिपाठी निराला -Hindi Poetry-कविता-Hindi Poem | Suryakant Tripathi Nirala Part 4

खँडहर के प्रति

खँड़हर! खड़े हो तुम आज भी?
अदभुत अज्ञात उस पुरातन के मलिन साज!
विस्मृति की नींद से जगाते हो क्यों हमें–
करुणाकर, करुणामय गीत सदा गाते हुए?

पवन-संचरण के साथ ही
परिमल-पराग-सम अतीत की विभूति-रज-
आशीर्वाद पुरुष-पुरातन का
भेजते सब देशों में;
क्या है उद्देश तव?
बन्धन-विहीन भव!
ढीले करते हो भव-बन्धन नर-नारियों के?
अथवा,
हो मलते कलेजा पड़े, जरा-जीर्ण,
निर्निमेष नयनों से
बाट जोहते हो तुम मृत्यु की
अपनी संतानों से बूँद भर पानी को तरसते हुए?

किम्बा, हे यशोराशि!
कहते हो आँसू बहाते हुए–
“आर्त भारत! जनक हूँ मैं
जैमिनि-पतंजलि-व्यास ऋषियों का;
मेरी ही गोद पर शैशव-विनोद कर
तेरा है बढ़ाया मान
राम-कॄष्ण-भीमार्जुन-भीष्म-नरदेवों ने।
तुमने मुख फेर लिया,
सुख की तृष्णा से अपनाया है गरल,
हो बसे नव छाया में,
नव स्वप्न ले जगे,
भूले वे मुक्त प्राण, साम-गान, सुधा-पान।”
बरसो आसीस, हे पुरुष-पुराण,
तव चरणों में प्रणाम है।

 प्रेम के प्रति

चिर-समाधि में अचिर-प्रकृति जब,
तुम अनादि तब केवल तम;
अपने ही सुख-इंगित से फिर
हुए तरंगित सृष्टि विषम।
तत्वों में त्वक बदल बदल कर
वारि, वाष्प ज्यों, फिर बादल,
विद्युत की माया उर में, तुम
उतरे जग में मिथ्या-फल।

वसन वासनाओं के रँग-रँग
पहन सृष्टि ने ललचाया,
बाँध बाहुओं में रूपों ने
समझा-अब पाया-पाया;
किन्तु हाय, वह हुई लीन जब
क्षीण बुद्धि-भ्रम में काया,
समझे दोनों, था न कभी वह
प्रेम, प्रेम की थी छाया।

प्रेम, सदा ही तुम असूत्र हो
उर-उर के हीरों के हार,
गूँथे हुए प्राणियों को भी
गुँथे न कभी, सदा ही सार।

वीणावादिनी

तव भक्त भ्रमरों को हृदय में लिए वह शतदल विमल
आनन्द-पुलकित लोटता नव चूम कोमल चरणतल।

बह रही है सरस तान-तरंगिनी,
बज रही है वीणा तुम्हारी संगिनी,
अयि मधुरवादिनि, सदा तुम रागिनी-अनुरागिनी,
भर अमृत-धारा आज कर दो प्रेम-विह्वल हृदयदल,
आनन्द-पुलकित हों सकल तव चूम कोमल चरणतल!

स्वर हिलोरं ले रहा आकाश में,
काँपती है वायु स्वर-उच्छ्वास में,
ताल-मात्राएँ दिखातीं भंग, नव रति रंग भी
मूर्च्छित हुए से मूर्च्छना करती उठाकर प्रेम-छल,
आनन्द-पुलकित हों सकल तव चूम कोमल चरणतल!