अनामिका -सूर्यकांत त्रिपाठी निराला -Hindi Poetry-कविता-Hindi Poem | Suryakant Tripathi Nirala Part 6
सन्तप्त
अपने अतीत का ध्यान
करता मैं गाता था गाने भूले अम्रीयमाण।
एकाएक क्षोभ का अन्तर में होते संचार
उठी व्यथित उँगली से कातर एक तीव्र झंकार,
विकल वीणा के टूटे तार!
मेरा आकुअ क्रंदन,
व्याकुल वह स्वर-सरित-हिलोर
वायु में भरती करुण मरोर
बढ़ती है तेरी ओर।
मेरे ही क्रन्दन से उमड़ रहा यह तेरा सागर
सदा अधीर,
मेरे ही बन्धन से निश्चल-
नन्दन-कुसुम-सुरभि-मधु-मदिर समीर;
मेरे गीतों का छाया अवसाद,
देखा जहाँ, वहीं है करुणा,
घोर विषाद।
ओ मेरे!–मेरे बन्धन-उन्मोचन!
ओ मेरे!–ओ मेरे क्रन्दन-वन्दन!
ओ मेरे अभिनन्दन!
ये सन्तप्त लिप्त कब होंगे गीत,
हृत्तल में तव जैसे शीतल चन्दन?
चुम्बन
लहर रही शशिकिरण चूम निर्मल यमुनाजल,
चूम सरित की सलिल राशि खिल रहे कुमुद दल
कुमुदों के स्मिति-मन्द खुले वे अधर चूम कर,
बही वायु स्वछन्द, सकल पथ घूम घूम कर
है चूम रही इस रात को वही तुम्हारे मधु अधर
जिनमें हैं भाव भरे हुए सकल-शोक-सन्तापहर!
अनुताप
जहाँ हृदय में बाल्यकाल की कला कौमुदी नाच रही थी,
किरणबालिका जहाँ विजन-उपवन-कुसुमों को जाँच रही थी,
जहाँ वसन्ती-कोमल-किसलय-वलय-सुशोभित कर बढ़ते थे,
जहाँ मंजरी-जयकिरीट वनदेवी की स्तुति कवि पढ़ते थे,
जहाँ मिलन-शिंजन-मधुगुंजन युवक-युवति-जन मन हरता था,
जहाँ मृदुल पथ पथिक-जनों की हृदय खोल सेवा करता था,
आज उसी जीवन-वन में घन अन्धकार छाया रहता है,
दमन-दाह से आज, हाय, वह उपवन मुरझाया रहता है!