अनामिका -सूर्यकांत त्रिपाठी निराला -Hindi Poetry-कविता-Hindi Poem | Suryakant Tripathi Nirala Part 20

अनामिका -सूर्यकांत त्रिपाठी निराला -Hindi Poetry-कविता-Hindi Poem | Suryakant Tripathi Nirala Part 20

नारायण मिलें हँस अन्त में

याद है वह हरित दिन
बढ़ रहा था ज्योति के जब सामने मैं
देखता
दूर-विस्तॄत धूम्र-धूसर पथ भविष्यत का विपुल
आलोचनाओं से जटिल
तनु-तन्तुओं सा सरल-वक्र, कठोर-कोमल हास सा,
गम्य-दुर्गम मुख-बहुल नद-सा भरा।

थक गई थी कल्पना
जल-यान-दण्ड-स्थित खगी-सी
खोजती तट-भूमि सागर-गर्भ में,
फिर फिरी थककर उसी दुख-दण्ड पर।
पवन-पीड़ित पत्र-सा
कम्पन प्रथम वह अब न था।
शान्ति थी, सब
हट गये बादल विकल वे व्योम के।

उस प्रणय के प्रात के है आज तक
याद मुझको जो किरण
बाल-यौवन पर पड़ी थी;
नयन वे
खींचते थे चित्र अपने सौख्य के।

श्रान्ति और प्रतीति की
चल रही थी तूलिका;
विश्व पर विश्वास छाया था नया।
कल्प-तरु के, नये कोंपल थे उगे।

हिल चुका हूँ मैं हवा में; हानि क्या
यदि झड़ूँ, बहता फिरूँ मैं अन्तहीन प्रवाह में
तब तक न जब तक दूर हो निज ज्ञान–
नारायण मिलें हँस अन्त में।

 प्रकाश

रोक रहे हो जिन्हें
नहीं अनुराग-मूर्ति वे
किसी कृष्ण के उर की गीता अनुपम?
और लगाना गले उन्हें–
जो धूलि-धूसरित खड़े हुए हैं–
कब से प्रियतम, है भ्रम?
हुई दुई में अगर कहीं पहचान
तो रस भी क्या–
अपने ही हित का गया न जब अनुमान?
है चेतन का आभास
जिसे, देखा भी उसने कभी किसी को दास?
नहीं चाहिए ज्ञान
जिसे, वह समझा कभी प्रकाश?

नर्गिस

(१)

बीत चुका शीत, दिन वैभव का दीर्घतर
डूब चुका पश्चिम में, तारक-प्रदीप-कर
स्निग्ध-शान्त-दृष्टि सन्ध्या चली गई मन्द मन्द
प्रिय की समाधि-ओर, हो गया है रव बन्द
विहगों का नीड़ों पर, केवल गंगा का स्वर
सत्य ज्यों शाश्वत सुन पड़ता है स्पष्ट तर,
बहता है साथ गत गौरव का दीर्घ काल
प्रहत-तरंग-कर-ललित-तरल-ताल।

चैत्र का है कृष्ण पक्ष, चन्द्र तृतीया का आज
उग आया गगन में, ज्योत्स्ना तनु-शुभ्र-साज
नन्दन की अप्सरा धरा को विनिर्जन जान
उतरी सभय करने को नैश गंगा-स्नान।

तट पर उपवन सुरम्य, मैं मौनमन
बैठा देखता हूँ तारतम्य विश्व का सघन;
जान्हवी को घेर कर आप उठे ज्यों करार
त्यों ही नभ और पृथ्वी लिये ज्योत्स्ना ज्योतिर्धार,
सूक्ष्मतम होता हुआ जैसे तत्व ऊपर को
गया, श्रेष्ठ मान लिया लोगों ने महाम्बर को,
स्वर्ग त्यों धरा से श्रेष्ठ, बड़ी देह से कल्पना,
श्रेष्ठ सृष्टि स्वर्ग की है खड़ी सशरीर ज्योत्स्ना।

(२)

युवती धरा का यह था भरा वसन्त-काल,
हरे-भरे स्तनों पर पड़ी कलियों की माल,
सौरभ से दिक्कुमारियों का मन सींचकर
बहता है पवन प्रसन्न तन खींचकर।
पृथ्वी स्वर्ग से ज्यों कर रही है होड़ निष्काम
मैंने फेर मुख देखा, खिली हुई अभिराम
नर्गिस, प्रणय के ज्यों नयन हों एकटक
मुख पर लिखी अविश्वास की रेखाएँ पढ़
स्नेह के निगड़ में ज्यों बँधे भी रहे हैं कढ़।
कहती ज्यों नर्गिस–“आई जो परी पृथ्वी पर
स्वर्ग की, इसी से हो गई है क्या सुन्दरतर?

पार कर अन्धकार आई जो आकाश पर,
सत्य कहो, मित्र, नहीं सकी स्वर्ग प्राप्त कर?
कौन अधिक सुन्दर है–देह अथवा आँखें?
चाहते भी जिसे तुम–पक्षी वह या कि पाँखें?
स्वर्ग झुक आये यदि धरा पर तो सुन्दर
या कि यदि धरा चढ़े स्वर्ग पर तो सुघर?”
बही हवा नर्गिस की, मन्द छा गई सुगन्ध,
धन्य, स्वर्ग यही, कह किये मैंने दृग बन्द।