फाग राग-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
गुलाल की मूठ
चौपदे
(1)
खेलने होली आई आज,
न जाना होगा ऐसा खेल;
न थी जिससे मिलने की चाह,
हो गया उससे कैसे मेल?
लालिमा आँखों की जो बना,
ललक उससे क्यों सकती रूठ;
लाल ने मूठी में कर लिया,
चला करके गुलाल की मूठ।
(2)
लालिमा नभ-तल पर थी लसी,
दिशा का था आरंजित भाल;
अरुण को करता था अनुरक्त,
रंगिनी ऊषा कुंकुम थाल।
रागमय भव लोचन को बना,
पसारे निज अनुरंजन हाथ;
बदन पर मले ललाम अबीर
क्षितिज पर विलसित था दिन नाथ।
सकल तरु के किसलय कमनीय
अरुणिमा से थे मालामाल;
खेलकर होली ऋतुपति साथ
हो गये थे किंशुक-तरु लाल।
कुमकुमे थे बुल्ले बन गये,
धुल रहा था सरि-सर में रंग,
विलसती थी पिचकारी लिये
ललित लीलामय लोल तरंग।
समा यह पुलकितकर अवलोक
हो रही थी मैं विपुल निहाल;
अचानक लगा गया आ कौन
गाल पर मेरे मंजु गुलाल।